आत्म पुराण

By: Jan 18th, 2020 12:15 am

गतांक से आगे…

वे ही जीव मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और जिन जीवों की वासनाओं का नाश नहीं हुआ ,वे बंध में ही पड़े रहते हैं। शंका- हे भगवन! पहले आपने एक ही जीव बतलाया था और अब अनेक जीव बतलाने लगे। इन दोनों बातों में विरोध जान पड़ता है? समाधान- हे श्वेतकेतु! जैसे स्वप्न अवस्था में कोई व्यक्ति अज्ञानवश अनेक रूप धारण करके किस रूप में बंध को प्राप्त होता है और किस रूप में मोक्ष का अनुभव करता है,वैसे ही यह जीवात्मा माया के वश में होकर अनेक रूपों को धारण करके अनेक प्रकार के अनुभव करता है। पर जैसे स्वप्न के समाप्त हो जाने पर वह गंध और मोक्ष सब मिट जाते हैं उसी प्रकार जब मनुष्य को आनंदस्वरूप आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है। तब वह सब प्रकार के अन्य अनुभवों से छूट जाता है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि जीवों का पारस्परिक भेद और परमात्मा के साथ ही अंतर प्रतीत होता है,वह केवल उपाधि के संबंध से ही जान पड़ता है। वास्तव में तो यह जीवात्मा अद्वितीय ब्रह्म रूप ही है।

शंका-हे भगवन! आपने पहले भी यही कहा था कि परमात्मदेव ही इस जगत में प्रवेश करते हैं। पर यह संभव नहीं जान पड़ता,क्योंकि यहां तुम परिच्छिन्न पदार्थ का ही प्रवेश करते दिखाई नहीं पड़ता?

समाधान-हे श्वेतकेतु! जिस प्रकार सर्प अपने बिल में प्रवेश करता है उस प्रकार परमात्मा जगत में प्रवेश नहीं करता। वरन जिस प्रकार सर्वत्र व्यापक होते हुए भी आकाश घड़ा आदि के रूप में आ जाता है,उसी प्रकार परमात्मदेव भी उन तेज, जल आदि विभूतियों में प्रवेश करता है। जिस प्रकार सुषुप्ति अवस्था में भी मनुष्य के भीतर आत्मा की स्थिति रहती है, पर वह सामान्य रूप से ही होती है, पर जाग्रत अवस्था में उसका परिचय विशेष रूप से व्यावहारिक कार्यों में दिखाई पड़ने लगता है। उसी प्रकार इन तेज,जल,पृथ्वी में वह परमात्मा सामान्य रूप से पहले ही प्रविष्ट हो चुका है,पर विशेष रूप से जीवात्मा रूप से वह तभी प्रवेश करता है जब इन तीनों भूतों के संयोग से नवीन रचनाएं होने लगती हैं और तभी उन पदार्थों के भिन्न-भिन्न नाम रूप होने लगते हैं। इसके लिए परमात्मा ने विचार किया कि मैं इन महाभूतों के एक-एक,नौ-नौ विभाग करूं,उससे ही जगत उत्पन्न हो सकेगा। तब परमात्मा ने तेज,जल आदि के तीन-तीन विभाग करके उनमें से दो भागों को तो पृथक रखा और शेष एक-एक भाग को पुनः तीन हिस्सों में बांट दिया। फिर इन तीनों विभागों में एक-एक को पृथक रखते हुए दो-दो विभागों में मिलाया। इस तरह तेज,जल आदि महाभूतों के तो सात-सात विभाग होते हैं और अन्य भूतों के दो-दो विभाग होते हैं। इसी प्रक्रिया को छांदोग्य उपनिषद में त्रिवृतकरण कहा गया है।

हे श्वेतकेतु! इस संसार में जितने भी जीव अन्न-जल ग्रहण करते हैं और त्रिवृत रूप जल को ही पीते हैं। वह अन्न तथा जल जठराग्नि में पहुंचकर पृथ्वी, तेज, जल इन तीनों के कारण तीन प्रकार का हो जाता है। इस तीन भागों वाले अन्न-जल का तेजस भाग सूक्ष्म मध्यम स्थूल की दृष्टि में तीन प्रकार का हो जाता है।


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