ऋषि अष्टावक्र

By: Jan 11th, 2020 12:16 am

 

राजा तथा सभी दरबारी उठे और अष्टावक्र का स्वागत किया गया, आसन दिया गया। आसन पर बैठने से पूर्व अष्टावक्र ने कहा, बिना समय बर्बाद किए मेरा अपने पुरोहित से शास्त्रार्थ आयोजित करें। शास्त्रार्थ हुआ और पुरोहित हार गया। नियमानुसार अब उसे पानी में डुबोना था। वह भागने लगा सबने पकड़ लिया। पुरोहित ने धैर्य रखते हुए कहा, राजन मैं इस पंडित अष्टावक्र की बुद्धिमता व ज्ञान से प्रभावित हूं। इनका आदर करता हूं। मुझे आप डुबोना भी चाहें, तो पानी मुझे मारेगा नहीं…

ऋषि अष्टावक्र के जीवन में अनेक रोचक व चमत्कारी घटनाएं घटी। अभी वे गर्भ में थे, तभी ऐसी ही एक घटना घटी, जिसका जिक्र यहां किया जा रहा है।

गर्भ के समय ही पिता को टोक दिया था अशुद्ध पाठ के लिए

बालक अभी मां के गर्भ में ही था कि एक दिन अपने पिता को पाठ करते सुना। पाठ तो पहले भी सुना करता था,मगर राजा के पाठ में कुछ अशुद्धियां थीं। इन्हें इस अवस्था में भी समस्त वेदों का बोध था। रहा नहीं गया,गर्भ से ही बोल पड़ा, पिता जी गलत पाठ मत करें। पिता ने अशुद्धि जानने की जिज्ञासा प्रकट नहीं की,बल्कि क्रोध में श्राप दे दिया, अभी से तू इतना टेढ़ा है। तू आठ जगह से टेढ़ा हो जाए और बालक जब पैदा हुआ, तो आठ जगह से टेढ़ा था। नाम रखा अष्टावक्र।

जनक के दरबार में ले लिया झगड़ा मोल

बालक अष्टावक्र ने अपने पूर्व जन्म की कमाई के साथ-साथ इस जन्म में काफी अध्ययन कर ज्ञान अर्जित किया। जब वह कुछ बड़े हुए,तो उसे अपने पिता तथा मामा को एक पुरोहित द्वारा पानी में डुबोकर मार देने की घटना की जानकारी मिली। राजा जनक के दरबार में यह पुरोहित देश-विदेश के विद्वानों,पंडितों से शास्त्रार्थ करता था। जो हार जाता,उसे दंडस्वरूप पानी में डुबोकर मार दिया जाता था। इसके लिए राजा को अनुमति थी। बालक अष्टावक्र के मामा तथा पिता ने भी इस पुरोहित से शास्त्रार्थ किया। हारे और पानी में डूबकर पा ली मृत्यु। अष्टावक्र अपनी माता तथा अन्य बंधुओं के मना करने पर भी राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ के लिए जा पहुंचे। इसे देखकर सभासदों ने इनका खूब मजाक उड़ाया। यह शांत बने रहे। जब उन्होंने कहा कि मैं पुरोहित के साथ शास्त्रार्थ करने आया हूं,तब दरबारी और अधिक हंसे, यह मुंह और मसूर की दाल। बालक से रहा न गया। कह दिया आप यहां दरबारी हैं या चर्मकार। यह सुनकर राजा जनक को भी बुरा लगा। उन्होंने स्पष्टीकरण मांग लिया। उत्तर में अष्टावक्र ने कहा, राजन आपके दरबारियों को आत्मा का बोध ही नहीं। चर्म का बोध है। वे नहीं जानते कि मेरे अंदर कैसी आत्मा है। वे तो मेरे चर्म को देखकर हंस रहे हैं। हुए न ये सब चर्मकार।

जीत गए अष्टावक्र

तब राजा तथा सभी दरबारी उठे और अष्टावक्र का स्वागत किया गया, आसन दिया। आसन पर बैठने से पूर्व अष्टावक्र ने कहा, बिना समय बर्बाद किए मेरा अपने पुरोहित से शास्त्रार्थ आयोजित करें। शास्त्रार्थ हुआ और पुरोहित हार गया। नियमानुसार अब उसे पानी में डुबोना था। वह भागने लगा सबने पकड़ लिया। पुरोहित ने धैर्य रखते हुए कहा, राजन मैं इस पंडित अष्टावक्र की बुद्धिमता व ज्ञान से प्रभावित हूं। इनका आदर करता हूं। मुझे आप डुबोना भी चाहें, तो पानी मुझे मारेगा नहीं। मैं वरुणदूत हूं। वरुण जी को एक यज्ञ करना था। उन्हें विद्वान पंडितों की जरूरत थी। अतः मैं पंडितों को पानी में डुबोता जरूर था,मगर सीधे यज्ञस्थली के पास पहुंचा देता था। वे सब के सब जीवित हैं, स्वस्थ हैं। वरुण का यज्ञ समाप्त हो गया है। मैं उन सब जीवित पंडितों को शीघ्र धरती पर ले आऊंगा। कुछ दिनों बाद सभी विद्वान वापस आ गए, दान दक्षिणा लिए हुए। इस प्रकार भक्त अष्टावक्र को भगवान अष्टावक्र कहा जाता है।

                                       – सुदर्शन भाटिया 


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