कब मिलेगी हिमालयन रेजिमेंट

By: Jan 16th, 2020 12:05 am

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, बिलासपुर से हैं

मलाल इस बात का है कि देश की सरहदों को अपने रक्त से सींच कर तथा देश के कई महाज पर सैन्य कुर्बानियां देकर अपनी शूरवीरता भरी कियादत तथा सलाहिमत से शौर्य गाथाओं के कई मजमून लिखने वाले प्रदेश की जांबाज सैन्यशक्ति को भारतीय सेना में अपने नाम की पहचान के लिए रेजिमेंट नहीं मिली जिसके लिए राज्य वर्षों से संघर्षरत व सुपात्र है…

गत 15 जनवरी को भारतीय सेना ने अपना 72वां सेना दिवस मनाया। दरअसल 15 जनवरी 1949 को जनरल केएम करिपप्पा ने भारतीय थल सेना के प्रथम भारतीय सेना प्रमुख के तौर पर बागडोर संभाली थी। इससे पूर्व ब्रिटिश सैन्य अधिकारी रॉबर्ट फ्रांसिस बूचर इस पद पर कार्यरत थे। वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे 28वें सेना प्रमुख हैं। भारतीय सेना का गौरवमयी इतिहास काफी पुराना तथा इसके रणबांकुरों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। शौर्य पराक्रम वर्षों से भारतीय सेना की परंपरा रही है। आजादी से पूर्व ब्रतानवी हुकूमत के दौर में 1897 में सारागढ़ी का युद्ध हो या दो विश्वयुद्ध भारतीय सैन्य शक्ति विदेशी धरती पर भी अपने पराक्रम से देश का परचम लहराती आई है। आजादी के बाद सितंबर 1947 में हैदराबाद के भारत विलय के लिए ‘आपरेशन पोलो’ दिसंबर 1961 में ‘ऑप्रेशन विजय’ के तहत गोवा को पुर्तगाल के 450 साल पुराने आधिपत्य से आजाद कराना तथा पाकिस्तान के खिलाफ  चार बड़े युद्ध, तमाम सफलतम सैन्य अभियान भारतीय सेना की अतुलनीय वीरता के परिचायक हैं। भारतीय सैन्य जगत के युद्धों में वीरभूमि हिमाचल के रणबांकुरों ने देश के लिए सैन्य इतिहास में बहादुरी के कई आयाम लिखे हैं। प्रथम विश्वयुद्ध ‘1914-1918’ में राज्य के हजारों सैनिकों की भागीदारी रही थी। द्वितीय विश्वयुद्ध ‘1939-1945’ के दौरान अंग्रेज हुकूमत ने अदम्य साहस के लिए देश के 18 सैनिकों को उस समय के सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘विक्टोरिया क्रॉस’ से नवाजा था जिनमें दो हिमाचली योद्धा भी थे। इस सम्मान को पाने वाले वीर भंडारी राम का संबंध बिलासपुर से था।

देश की आजादी के दो महीने बाद अक्तूबर 1947 में कश्मीर पर पाक सेना द्वारा किए गए कबायली लश्कर हमले में प्रदेश के 43 सैनिकों ने कश्मीर को बचाने के लिए अपनी शहादत दी थी। इसी युद्ध में शहीद मेजर सोमनाथ शर्मा को भारत सरकार ने ‘परमवीर चक्र’ ‘मरणोपरांत’ से अलंकृत किया था। आजाद भारत का प्रथम सर्वोच्च सैन्य सम्मान उन्हीं के नाम है। 1962 के भारत-चीन युद्ध में राज्य के 131 सैनिक शहीद हुए थे। इसी युद्ध में अपनी वीरता से चीन को मुतासिर करने वाले परमवीर चक्र विजेता मेजर धन सिंह थापा का संबंध भी राज्य से ही था। वहीं 1971 की शहीद जंग में प्रदेश के 195 सैनिकों ने अपना बलिदान दिया था जिससे पाकिस्तान की तकसीमी इबारत तथा नए मुल्क बांग्लादेश की तामीर भी शामिल है। 1999 कारगिल में दुनिया के सबसे ऊंचे व दुर्गम रणक्षेत्र में लड़े गऐ युद्ध में हिमाचल के 52 जांबाजों ने अपने प्राणों की आहुति देकर पाक फौज की कब्र खोद कर उस पर भारत की विजयगाथा का ऐतिहासिक शिलालेख लिखने में अपना निर्णायक किरदार निभाया था। इस युद्ध के दो परमवीरों का संबंध भी हिमाचल से रहा है। सालों से नियंत्रण रेखा, अंतरराष्ट्रीय सीमा तथा देश की आंतरिक सुरक्षा में मुस्तैद होकर प्रदेश के कई सैनिक अपना बलिदान देते आ रहे हैं। राज्य के सैनिक खिलाड़ी ओलिंपिक जैसे खेल महाकुंभ में विश्व के खेल मानचित्र पर भारत का परचम लहरा कर अपनी उत्कृष्ट खेल प्रतिभा का परिचय दे चुके हैं तथा वर्तमान में भी राज्य के कई सैनिक खिलाड़ी देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। प्रदेश से 2018 में 37 तथा 2019 में 39 युवा आफिसर भारतीय थल सेना के लिए चयनित हुए हैं। राज्य में मौजूद सैनिक स्कूल सुजानपुर टीहरा सेना को आफिसर देने में अव्वल रहा है। भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर भले ही राज्य देश में 18वें पायदान पर हैं, मगर एक हजार के लगभग वीरता पदकों तथा देश रक्षा में सर्वाधिक बलिदान देने के मामले में राज्य देश में शीर्ष पर काबिज है। हिमाचल को यह गौरव प्राप्त है कि देश के सर्वोच्च सैन्य पदक आजादी से पूर्व 2 विक्टोरिया क्रॅस तथा आजादी के बाद 4 परमवीर चक्र प्रदेश के सीने पर सजे हैं। समरभूमि में शत्रु के समक्ष अदम्य साहस के ये तमाम आंकड़े तसदीक करते हैं कि हिमाचली पराक्रम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वीरता की यही शिनाख्त राज्य को वीरभूमि के रूप में परिभाषित करती है, लेकिन मलाल इस बात का है कि देश की सरहदों को अपने रक्त से सींच कर तथा देश के कई महाज पर सैन्य कुर्बानियां देकर अपनी शूरवीरता भरी कियादत तथा सलाहिमत से शौर्य गाथाओं के कई मजमून लिखने वाले प्रदेश की जांबाज सैन्यशक्ति को भारतीय सेना में अपने नाम की पहचान के लिए रेजिमेंट नहीं मिली जिसके लिए राज्य वर्षों से संघर्षरत व सुपात्र है।

देश के सुरक्षा बलों में राज्य के एक लाख से अधिक सैनिक कार्यरत हैं, चूंकि देश में ऐसा कोई राज्य नहीं है जिसकी सैन्य क्षेत्र में अपने सैनिकों की इतनी बड़ी तादाद में तैनाती के बावजूद अपनी पहचान न हो। वर्षों से राज्य के पूर्व सैनिक इस आवाज को बुलंद करते आए हैं तथा समय-समय पर राज्य का सियासी नेतृत्व भी केंद्र के समक्ष राज्य के लिए रेजिमेंट की मांग करता आया है। इस मुद्दे को मौजूदा राज्य सरकार ने विधानसभा में 2018 के शीतकालीन सत्र में सर्वसम्मति से पारित भी करवाया था। मगर शायद यह आवाज उस शिद्दत तथा पुरजोर तरीके से नहीं उठी कि केंद्र के सियासी गलियारों में इसकी गूंज सुनाई दे। नतीजतन वीरभूमि के सैन्य सम्मान से जुड़ा यह मुद्दा सियासत की सरहदों में ही उलझ कर रह गया। सैन्य बहुल प्रदेश होने के नाते यहां के कई गांवों व परिवारों की देश के रक्षा क्षेत्र में सैन्य सेवा की सम्मान जनक परंपरा रही है। लिहाजा केंद्र की मौजूदा हुकूमत को प्रदेश की दमदार सैन्य पृष्ठभूमि के गौरवशाली सैन्य इतिहास से जुड़े इस विषय पर गंभीरता से गौर फरमाना होगा। वर्षों से जिसकी कसक सैन्य समाज के साथ लाखों प्रदेशवासियों के दिलों में है। अतः लाजिमी है कि इस मुद्दे पर राज्य सरकार के स्वर मद्धम न पड़े। साथ ही राज्य के युवाओं के लिए भर्ती कोटे में बढ़ोतरी तथा प्रतिवर्ष सेना भर्ती के आयोजनों के कार्यक्रमों में और इजाफा करने की तरफ विचार होना चाहिए। बहरहाल ‘ग्लोबल फायर पावर 2019’ की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय थल सेना की गिनती विश्व की चार सर्वोत्तम सेनाओं में हो रही है। इसकी बढ़ती लड़ाकू ताकत का एहसास कई मुल्कों को हो चुका है। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ  ‘सीडीएस’ की नियुक्ति से भारतीय सैन्य क्षेत्र में बेहतर समन्वय व मजबूती स्थापित होगी। सेना दिवस राष्ट्रीय पर्व के तौर पर मनाया जाए। हर देशवासी को अपनी सेना के बढ़ते रुतबे तथा हैसियत पर गर्व होना चाहिए जिसके दम पर देश की सरहदें महफूज हैं और निःसंदेह रहेंगी।


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