कृष्णा सोबतीः प्रतिरोध की बुलंद आवाज

By: Jan 25th, 2020 12:05 am

अमरीक सिंह

स्वतंत्र लेखक, साहित्य-संस्कृति

के इतिहास ने कृष्णा सोबती के नाम बहुत कुछ दर्ज किया है। उनके लिखे अल्फाज जिंदगी के हर अंधेरे कोने में दिया बनके कंदीलें जलाने को बेचैन, बाजिद और तत्पर रहते मिलते हैं। फूलों को अतत: सूखना ही होता है..बेशक जीवन के फूलों को भी, लेकिन एक समर्थ और सार्थक कलम उन्हें सदैव महकाए रखती है। ‘उम्मीद शब्द को अपने तईं जिंदा रखने के लिए ताउम्र संघर्षरत और रचनात्मकता से आंदोलनरत रहती है। ऐसी एक कलम का नाम कृष्णा सोबती थे, जिनका जिस्मानी अंत 25 जनवरी 2019 में तब हुआ था जब देश औपचारिक रूप से गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियों में मसरूफ  था। तब भी तंत्र हावी था और गण गौण। इन्हीं चिंताओं के साथ गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, आज के दिन कृष्णा जी ने आखरी सांसेंं ली थींं। अंधकार में खड़े उनके साथी, समकालीन ‘लेखक और पाठक-प्रशंसक, एक साल बाद उनका गहरी शिद्दत के साथ पुण्य स्मरण कर रहे हैंं कि असहिष्णुता का अंधकार पहले से कहीं ज्यादा गहरा गया है और अराजकता ने संगठित व्यवस्था का रूप विधिवत धारण कर लिया है। इस कुचक्र के खिलाफ  लिखने-बोलने वालों के इर्द-गिर्द घेराबंदी की जा रही है, मनोवैज्ञानिक खौफ की लकीरें खींची जा रही हैं और उन्हें खामोश करने के पैंतरें बनाए जा रहे हैं। कृष्णा सोबती आज जिस्मानी तौर पर होतींं तथा उनकी कलम 25 जनवरी, 2019 में हमेशा के लिए खामोश न हो गई होती तो उनका कहा, लिखा और बोला यकीनन मशाल का काम करता। कृष्णा जी का जीवन जब ढलान पर था, ठीक तब फासीवादी शक्तियों का नंगा नाच शुरू हो गया था। अपने अंतिम दौर में उन्होंने अपनी चिंतनधारा और यथार्थवादी अनुभवों से उनपर खूब जमकर प्रहार किए। उन तमाम खतरों से बादलील बदस्तूर आगाह किया जो आज दरपेश हैंं और अंधराष्ट्रवादी हथियारों-औजारों से राष्ट्र को गृह युद्ध में झोंक रहे हैं। अपने अंतिम दिनों में कृष्णा सोबती ने रचनात्मक लेखन स्थगित कर दिया था और वैचारिक लेखन को बतौर ‘हस्तक्षेपकारी तरजीह दी। आवामी अदीब और बुद्धिजीवी होने का सच्चा धर्म निभाया। भीतर की रोशनी बेशक तेज हो गई थी, लेकिन आंखों ने देह का साथ लगभग छोड़ सा दिया था। बहुत मोटे लैंस के साथ बामुश्किल वह पढ़ती-लिखती थींं। आंखें थकतींं थींं, लेकिन दिलो-दिमाग की रोशनी जीवनपर्यंत ताजा रही। तब का ‘जनसत्ता आज वाला जनसत्ता नहीं था, कहीं न कहीं प्रतिरोध की आवाज का एक मंच था। तब उनके लेख, जिन्हें वह अपने मोटे लेंस के जरिए हाथ से लिखती थींं, जनसत्ता के पहले पन्ने पर ‘बैनर न्यूज की जगह छपते थे। जुल्मत कि खिलाफत में एक-एक लफ्ज को उन्होंने कैसी वैज्ञानिक संवेदना और तार्किक क्रोध के साथ लिखा, इसे तब के उनके लेख पढ़कर ही जाना जा सकता है। या तब जाना जाएगा जब अंतिम दिनों का उनका वैचारिक लेखन किताबों की शक्ल में सामने आएगा। अपने समकालीन तथा अपने समकक्ष कद वाले हिंदी लेखकों में वह अकेली और पहली थींं जिन्होंने अराजकता-असहिष्णुता के विरुद्ध इस तरह कलम चलाई कि असाहित्यिक पाठकों को भी सही ‘परख के लिए नई दशा-दिशा मिली। हालांकि वे सीमित थे पर आज के जन आंदोलन बताते हैं कि अब वे कितने महत्त्वपूर्ण हैंं। माफ  कीजिए, 2014 के बाद कृष्णा सोबती जब वैचारिक लेखन कर रही थींं और मौखिक भी तब उनके ज्यादातर समकालीन लेखक आराम कुर्सियों पर बैठे विपरीत समय को बगल से गुजरते देख रहे थे या कहानियां-कविताएं लिखते-लिखते ऊब रहे थे। कृष्णाजी कभी भी उन संस्कृति कर्मियों की कतार का हिस्सा नहीं रहींं जो यह मानते हैं कि एक रचनात्मक ‘लेखक का काम सिर्फ  लिखना होता है, सामाजिक सरोकारों में जमीनी स्तर पर आकर हिस्सेदारी करना नहीं। अपनी जीवन संध्या में उन्होंने खुलकर उन वर्गों के हक में लिखा-बोला, जो 2020 के गणतंत्र में क्रूर सत्ता के निशाने पर हैं।सरकारी साहित्यिक पुरस्कारों की बेशर्म लूटपाट और जोड़-तोड़ के बीच प्रतिरोध की प्रतिनिधि आवाज बनते हुए कृष्णा सोबती ने भारतीय साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता एक पल में छोड़ दी। इस सदस्यता को लेखन का सर्वोच्च सम्मान माना जाता है। लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता के लिए इसे वापस लौटाना उन्होंने अनिवार्य माना। वह इस सोच पर अडिग थीं कि लोकतंत्र करेगा तो मनुष्यता के मरने का संक्रमण भी शुरू हो जाएगा। उनकी किताब ‘शब्दों के आलोक में इसी चिंतनधारा के साथ प्रारंभ और समाप्त होती है। यह उनके ‘जिंदगीनामा के फलसफे का अपना सच था। 2014 के बाद दक्षिणपंथी ताकतों के नापाक मंसूबों के खिलाफ  हिंदी समाज से पहली बड़ी आवाज कृष्णा सोबती की उठी थी। उठी क्या..गूंजी थी! प्रतिरोध की उस गूंज में इतनी तीव्रता थी कि कतिपय बड़े वामपंथी लेखक भी उनसे किनारा कर गए कि कहीं सत्ता के कहर का शिकार न होना पड़ जाए। हालांकि भारतीय भाषाओं के बेशुमार बड़े लेखक-संस्कृतिकर्मी कृष्णा जी के साथ आते गए। तभी पुरस्कार वापसी का अभियान चला जिसे अवार्ड वापसी गिरोह कहकर लांछित किया गया। दिल्ली में ‘प्रतिरोध के नाम से एक विशाल सेमिनार आयोजित किया गया जिसमें देश से अलग-अलग भाषाओं के बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों ने शिरकत की। रोमिला थापर, डा. कृष्ण कुमार, अशोक बाजपेयी, गणेश देवी और कन्हैया कुमार आदि भी इसमें शामिल थे। कृष्णा सोबती बीमारी की हालत में इस सेमिनार की अध्यक्षता करने वहील चेयर आई थींं। उनका शरीर कमजोर था, लेकिन प्रतिरोध की आवाज बेहद-बेहद बुलंद! इस कद्र कि वह एक घंटा से ज्यादा समय इतना प्रभावशाली और उर्जस्वित बोलींं कि मौजूद तमाम लोग कुर्सियों से खड़े होकर देर तक तालियां बजाते रहे। वैसा निर्भीक और सहास भरा जोशीला भाषण शायद ही कभी किसी हिंदी लेखक ने शासन व्यवस्था के खिलाफ  दिया हो। उनका दो टूक मानना था कि सच्चे लेखक की अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है जो दरबारी-सरकारी सत्ता से कहीं ज्यादा सशक्त और पाक..पावन होती है। लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था और उस की हिफाजत का जज्बा उनके खून में था। कालजयी स्तर के लेखन की लेखिका का पहला उपन्यास श्चन्नाश् था जो बाकायदा छपकर तब आया जब वह मृत्युशैया पर थींं। आधी सदी पहले लिखे इस उपन्यास को 50 साल पहले उन्होंने प्रकाशक को अपनी जेब से पैसे देकर इसलिए अधछपा वापिस उठा लिया था कि प्रकाशक उसमें से पंजाबी-उर्दू के कुछ शब्द हटाना चाहता था। कृष्णा जी को यह मंजूर नहीं हुआ और छपाई का हर्जाना देकर उन्होंने इसे ‘ड्राÓ कर लिया। 2019 में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। यह उनकी जिंदगी रहते छपी आखिरी किताब है जो सबसे पहले लिखी गई थी लेकिन उन्होंने अपनी लेखकीय आजादी की हिफाजत करते हुए नहीं छपवाया। यह प्रकरण अपने आप में इकलौती मिसाल है। इस बात की भी कि जिन लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए वह अपनी आखिरी सांस तक कायम थींं, उन्हीं के लिए अपने लेखकीय जन्म के वक्त भी थींं। कूष्णा सोबती हिंदी शब्द संसार में अकेली हैं जिन्होंने अपने समकालीनों पर सबसे ज्यादा और विस्तार से लिखा है। यहां भी उनकी ‘लोकतांत्रिक लेखनी कि दृढ़ता दीखती है।


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