गीता रहस्य

By: Jan 11th, 2020 12:16 am

स्वामी रामस्वरूप

 वेद कहता है कि माता-पिता, अतिथि, गुरु की सेवा करते हुए और वेदज्ञ गुरु को अपनी सेवा से तृप्त करके बदले में संपूर्ण वेद एवं योग विद्या का अभ्यास करके सब दुःखों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त करें,यही जीवन का लक्ष्य है…

गतांक से आगे…

सामवेद मंत्र 649 में भी परमेश्वर को दुष्टों का नाश करने वाला सबका प्रभु अर्थात स्वामी कहा है। अतः यहां श्री कृष्ण महाराज स्वयं को यज्ञ का भोक्ता जीव एवं प्रकृति का स्वामी नहीं कह रहे अपितु वेदानुसार उस सृष्टि रचयिता, निराकार परमात्मा को ही कह रहे हैं। श्रीकृष्ण महाराज कह रहे हैं कि केवल देवों की पूजा करने वाले परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानते,उनके पास केवल पढ़ा-सुना,रटा ज्ञान होता है। कपिल मुनि ने सांख्य शास्त्र सूत्र 1/23 में इस बात को ऐसा कहा है, ‘वाङमय तु तत्त्वम चित्तास्थितेः’ अर्थात केवल वेदाध्ययन अथवा अन्य ग्रंथों को पढ़ना आदि भी मात्र शाब्दिक ज्ञान है, जो केवल चित्त तक सीमित रहता है। यह जीवात्मा एवं परमात्मा की अनुभूति नहीं कराता। यजुर्वेद मंत्र 40/12 का भाव यह है कि केवल शाब्दिक ज्ञान पाकर जीव अभिमान, अहंकार में फंस जाता है कि मुझे संस्कृत बोलना अथवा प्रवचन करना आ गया और सदा दुःखों के सागर में गोते लगाता रहता है। इसी श्लोक में ‘ते च्यवंति’ कहा है अर्थात यह लोग जीवन के मुख्य लक्ष्य से गिर जाते हैं। वेद कहता है कि माता-पिता, अतिथि, गुरु की सेवा करते हुए और वेदज्ञ गुरु को अपनी सेवा से तृप्त करके बदले में संपूर्ण वेद एवं योग विद्या का अभ्यास करके सब दुःखों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त करें,यही जीवन का लक्ष्य है।

 अतः हम केवल शाब्दिक ज्ञान नहीं अपितु  तपस्या, साधना, योगाभ्यास के बाद अनुभव ज्ञान अर्थात तत्त्व ज्ञान को महत्त्व दें। तत्त्व ज्ञान का अर्थ है शब्दों द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके यज्ञ एवं योगाभ्यास के कठोर अभ्यास द्वारा ईश्वर और अलौकिक अनुभूतियों को प्राप्त करना जिसे यजुर्वेद मंत्र 7/4 में कहा कि हे योग की सिद्धियों को ऐश्वर्य एवं ईश्वर को प्राप्त करो।                  – क्रमशः

 


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