जीवन की सच्चाइयों से भरपूरकहलूरी लोक-कहावतों में हास्य

By: Jan 19th, 2020 12:03 am

डा. रवींद्र कुमार ठाकुर

मो.-9418638100

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि और संभावना-8

अतिथि संपादक: अशोक गौतम

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि तथा संभावनाएं क्या हैं, इन्हीं प्रश्नों के जवाब टटोलने की कोशिश हम प्रतिबिंब की इस नई सीरीज में करेंगे। हिमाचल में व्यंग्य का इतिहास उसकी समीक्षा के साथ पेश करने की कोशिश हमने की है। पेश है इस सीरीज की आठवीं किस्त…

विमर्श के बिंदु

* व्यंग्यकार की चुनौतियां

* कटाक्ष की समझ

* व्यंग्य में फूहड़ता

* कटाक्ष और कामेडी में अंतर

* कविता में हास्य रस

* क्या हिमाचल में हास्य कटाक्ष की जगह है

* लोक साहित्य में हास्य-व्यंग्य

मेरे विचार में लोक-साहित्य की विधाओं में सबसे प्राचीनतम विधा लोक-कहावतें हैं। किसी भी लोक में संचरण करने वाली कहावतें व्यक्तिगत सुधार की प्रबल समर्थक होती हैं। जब लोकमानस ने अपने प्रारंभिक समय में बोलना सीखा और वह अपने दिल की  बात एक-दूसरे तक संप्रेषित करने लगा, और धीरे-धीरे उसमें पारंगत होने लगा तो उसने अपने जीवन के अर्जित अनुभवों को चटपटे सारगर्भित ढंग से कहना शुरू किया। तब ऐसे शब्द जो हंसाने के साथ-साथ बौद्धिक कौशल रखते हुए संक्षिप्त गूढ़ अर्थ लेकर दूसरों को अंतःकरण से प्रभावित करने लगे, वही लघु वाक्य आगे चलकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरण करते हुए कहावतों के रूप में प्रचलित हुए। प्रत्येक समाज के लोक-जीवन में लोक कहावतें जिसकी बोली में एक बार शामिल हुईं, उन्हें वहां सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। फिर क्या था! अपने खुलेपन हंसोड़पन को लेकर ये कहावतें देश, समाज की सीमाओं को पार करते हुए एक समाज से दूसरे समाज और एक बोली से दूसरी बोली में प्रवेश करते हुए प्रांतीय व देशीय बंधनों को तोड़ते हुए सार्वभौमिक हो गईं। आज कोई भी देशीय समाज इन कहावतों से अछूता नहीं है। आज के बिलासपुर, जिसे पहले रियासतों के समय कहलूर कहा जाता था, में आधुनिकता के बावजूद इन हास्य व्यंग्यात्मक लोक कहावतों का बहुत प्रचलन है। क्योंकि कहावतें अपने समय के कटु यथार्थ कहने के साथ-साथ अपने बीच के संदेश को जब संबंधित व्यक्ति को देती हैं तो उसमें व्यंग्य का भाव अवश्य छिपा होता है।

इसी व्यंग्यात्मकता के कारण जिस व्यक्ति को कहावत कही जाती है, वह व्यक्ति कहावत के तीक्ष्ण प्रहार को भी हंसते हुए मन मनसोसता जैसे-तैसे सहन कर लेता है। लोक कहावत द्वारा जो उसे संदेश या शिक्षा दी जाती है, उसे वह ग्रहण करके अपने में सुधार लाते हुए, दोबारा वैसी गलती नहीं करता, ताकि कहावत के व्यंग्यात्मक तीक्ष्ण तीर से वह दूसरी बार आहत न हो। कहलूरी समाज में बहुत सी कहावतें पूर्णतः व्यंग्यात्मकता लिए हैं, जैसे –  

जंहगेनियां रेज्जा।

सौहरियां रे पेहज्जा।।

उपरोक्त कहावत का व्यंग्यात्मक भावार्थ यह है कि यह समाज में उस व्यक्ति के लिए कही जाती है, जो बिना सामर्थ्य एवं तलब के किसी काम को करने की जिद्द करता है। अर्थात- टांगों में ताकत है नहीं और जिद्द कर रहा है कि ससुराल भेजो, लाड़ी (पत्नी ) लानी है। किसी को व्यंग्य भाव से जब यह कहावत कही जाती है तो सुनने वालों में बरबस ही हंसी के ठहाके गूंज जाते हैं। ऐसे ही एक और लोक कहावत-

क्या बंदरा जो वालियां।

क्या रिच्छा जो जनेऊ।।

इस कहावत को व्यंग्य रूप में उन लोगों को बोला जाता है जो गंवार होते हैं और संस्कारित नहीं होते तथा सदैव काम पड़ने पर जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं। और भी-

कल मड़ाई टोहलकी।

अज गवइया बणिया।।

अर्थात कल ढोलकी बनाई और आज संगीतकार बन बैठा। उपरोक्त कहावत का व्यंग्यार्थ है कि जो व्यक्ति योग्यता और सामर्थ्य के विपरीत होते हुए अपने आपको कुशल बताने की दिखावटी कोशिश करता है तो उस पर हंसते, तंज कसते हुए उसे समाज ये कहावत कहता है ताकि अगली बार को तो वह कम से कम सुधर जाए। इसी प्रकार कोई कार्य पूर्ण होने से पहले ही उसमें हस्तक्षेप करने वाले आ जाएं तो निम्न कहावत व्यंग्य स्वरूप बोली जाती

है  ः

गांव वसयानी।

मंगते पैहलेई चली आये।।

अर्थात ग्राम अभी बसा नहीं और भिखारी मांगने के लिए उसके बसने से पहले ही चले आए। इसी तरह निम्नलिखित कहलूरी कहावत समाज में उस व्यक्ति के लिए बोली जाती है जो छोटे से काम को बड़ा बताकर मुफ्त की वाहवाही लूटना चाहता है-

पावभर खिचड़ी।

चबारे बिच रसोई।।

अर्थात खाना या खिचड़ी बनानी थोड़ी सी है परंतु उसे पकाने के लिए स्थान चुनना लंबा-चौड़ा है, जहां खूब सारा अन्न पकाया जा सके। इसलिए व्यंग्य स्वरूप यह कहावत बोली जाती है। ऐसी ही एक और कहावत –

इन्हां तिलांच नियां तेल।।

सच कहा जाए तो यह कहावत समाज में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती आई है। यह उस व्यक्ति के लिए कही जाती है, जिसे कोई कार्य करने के लिए दिया जाता है और वह व्यक्ति उस कार्य को करने में एकदम असमर्थता व्यक्त करता है। यदि उस समय कोई बड़ा बूढ़ा व्यक्ति इस कहावत को बोल देता है, तो वह व्यक्ति उस कार्य को करने की चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने आपको हर कार्य में समर्थ बनाने का प्रयास करते हुए समाज में अपने को सफल सिद्ध करता है। इस प्रकार यह कहावत मृतप्रायः व्यक्ति में भी जान फूंकने का काम करती है। उसका मार्गदर्शन करती है। इसी प्रकार निम्नलिखित कहावत के माध्यम से किया गया व्यंग्य जहां सुनने वालों को ठहाके लगाने के लिए मजबूर कर देता है, वहीं जिसे वह कहावत संबोधित करते हुए कही जाती है, उसे कहलूरी समाज की ओर से एक बौद्धिक चेतावनी भी होती है –

चोरां री टोल्ली।

इक्को ही बोल्ली।।

कहावत का भावार्थ यह है कि यदि कोई भद्र पुरुष भी गलती से किन्हीं गलत लोगों के साथ, यदि थोड़े समय के लिए भी मिल  गया तो समाज उसे भी उन्हीं गलत लोगों की टोली का सदस्य बोलने से नहीं चूकता। इसलिए कहलूरी जनपद में बोली जाने वाली यह लोक कहावत यहां के समाज को यही संदेश देती आई है कि गलती से भी बुरे लोगों से मत मिलो, नहीं तो कीचड़ के छींटे आप पर भी पड़ेंगे। अतः सार रूप में यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि लोक-साहित्य की कदम-कदम पर प्रयोग होने वाली यह विधा अपने सार रूप में यथार्थ के सटीक, शिक्षाप्रद एवं व्यंग्यात्मक तीक्ष्ण प्रहारों से जहां सदियों से जनमानस का मनोरंजन करती आई है, वहीं अपने समय के समाज को आईना दिखाते हुए, जीवन के प्रत्येक पहलू पर उसका मार्गदर्शन आज भी कर रही है, बिना किसी दुराव-छिपाव के।


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