धर्म का वास्तविक अर्थ

By: Jan 11th, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

आध्यात्मिक जगत में धर्म का वास्तविक अर्थ है वास्तविक स्वभाव यानी मनुष्य का अपने वास्तविक स्वभाव से जुड़ जाना, वापस अपने घर में पहुंच जाना अर्थात मनुष्य का अपने हकीकी स्वभाव में लौट आने परमात्मा में दाखिल हो जाने का प्रतीक है। अब स्वभाव भी उन अविभाज्य शब्दों में से एक है,क्योंकि जाहिर तौर पर इसका अर्थ लिया जाता है स्वयं का भाव स्वयं में होना। जबकि परमार्थ में स्वभाव का खुद से कोई संबंध नहीं है। जहां स्वभाव आरंभ होता है वहां स्व यानी खुद मिट जाता है। स्वभाव का वास्तविक अर्थ है जो हमारे अस्तित्व  से पहले था, हमारा अस्तित्व है तब भी है और हमारे अंत होने के उपरांत भी रहेगा। दूसरे शब्दों में स्वभाव का अर्थ प्रकृति भी है। अगर  मैं बिलकुल मिट ही जाऊं,मेरा यह मैं बिलकुल ही मिट जाए, तब जो शेष रह जाएगा, वह स्वभाव है। उदाहरण के तौर पर जब मुनष्य बेहोश होता है अथवा गहरी मूर्छा में होता है तब स्व नहीं होता लेकिन स्वभाव होता है। दूसरे शब्दों में जब तक  मैं है, तब तक प्रायः जो मुझे दिखाई पड़ रहा है,वह जगत है। जगत केवल मेरी मैं के अंधकार से देखा गया कुछ है। अगर मेरी मैं मिट जाए, तो ये  काफूर हो जाएगी। अतः ऐसी यात्रा का नाम आध्यात्मिक  स्वभाव की यात्रा है। जिसका आरंभ पूर्ण सद्गुरु की अपार कृपा  से ही संभव है। क्योंकि ब्रह्मनिष्ठ गुरु की करुणा से ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है और जब इस प्रकार से ज्ञान का असलियत में चिराग रोशन होता है, तो इसकी रोशनी केवल अपने तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि दूसरों पर भी पड़ेगी। इसका नाम दया है। शब्द दया अपने आप में ही एक गहरा शब्द है क्योंकि दया का स्रोत ब्रह्म है। जीवन में जो सत्य है,शिव है, सुंदर है, जो सब का आधार है, जो मूल है। यही कारण है कि मनुष्य जब सही अर्थों में सद्गुरु की कृपा से धर्मी बनता है, तो इसके अंदर असीमित करुणा पैदा होनी शुरू हो जाती है। तब ज्ञानवान अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाता है। तब ज्ञानवान दूसरों को सहारा देने लगता है। तब इससे जो भी बन पड़ता है दूसरों को रोशनी में ले जाने की कोशिश करता है। यह सदा सही चाहता है कि ज्ञान से स्वयं भी लाभ उठाए और इसके अतिरिक्त दूसरों को भी इससे लाभ प्राप्त हो। इसके साथ-साथ ज्ञानवान इस संदर्भ में बड़ी सावधानी रखता है कि यह दया किसी खास व्यक्ति तक सीमित न रह जाए अन्यथा दया स्वार्थ और व्यापार बन जाएगी। ज्ञानवान यह बात भली प्रकार जानता है कि मैं ही सब के भीतर विराजमान हूं और दया का अर्थ है दूसरों को पहचानना यह दया को लंगर बनाता है,भंडार बनाता है। दूसरों का विचार करना,दूसरों के जजबात का ध्यान रखना। बगैर किसी भेदभाव के दूसरों के हित की बात करना दया का लंगर और भंडार है,इसलिए धर्म के मार्ग में दया मशाल का काम देती है। इसमें कोई शक नहीं है कि ज्ञानवान मोक्ष की ओर  कदम उठाता है, तो भी यह दूसरों को साथ लेकर चलने को अभ्यस्त हो जाता है। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि दया का प्रयोग कैसे यथार्थ हो। ज्ञानी पुरुष का कथन है कि दूसरों पर सदा दया परंतु अपने आप पर संतोष यथार्थ है कि मैं जहां हूं ठीक हूं,मुझे जो मिला उससे मैं संतुष्ट हूं,मैं जिस अवस्था से गुजर रहा हूं ठीक है। मालिक का हुक्म सत्य है। इसी की रजा में मेरा भला है।


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