मनसुखा का सृजित हास्य

By: Jan 26th, 2020 12:06 am

त्रिलोक मेहरा

मो.-8219360278

एक समय में मनोरंजन के साधन आम और खास में विभक्त थे। खास शासकीय वर्ग के लिए विशेष स्थान पर और आम जन साधारण के लिए सार्वजनिक स्थानों में आयाजित होते थे। प्रारंभ में भगत मुख्यतः कांगड़ा जनपद में मामूली लोगों द्वारा साधारण जनता के मनोरंजन का साधन थी। अबसे इसमें भक्ति भाव का समावेश हो जाने के कारण सब लोग अपने घरों में इसका आयोजन करवाते हैं तथा सब वर्गों के लोग इन मंडलियों का हिस्सा बनना पसंद करते हैं। खेत के काम से फुर्सत के क्षण हों, रात्रि में मौसम बाहर बैठने के अनुकूल हो, तब भगत के लिए घर का आंगन मंच बनकर सज जाता है और इसके इर्द-गिर्द उत्सुक लोग आनंद लेने के लिए बैठ जाते हैं। शर्द काल हो तो आंगन में बड़े-से अलाव के निकट बजंत्री भगत की झांकियों के अनुरूप तबला, हारमोनियम, खंजरी, घड़ताल और नगारटू लोक वाद्ययंत्रों पर धुनें बजाते हैं।

चंगर संस्कृति कला मंच के संस्थापक ओम प्रकाश प्रभाकर के कथनानुसार, भगत का पूर्व रूप स्वांग था और स्वांग द्वारा साधारण लोगों को आनंद से सराबोर करना कलाकारों का लक्ष्य होता था। तब लोगों की मांग पर कलाकार एक जगह इकट्ठा होते और अपनी कला द्वारा लोगों को रिझाते थे। कार्यक्रम के मध्य कलाकारों की सहायता के लिए दर्शकों में इच्छानुसार दान करने के लिए आरती की ज्योति जगी थाली भी घुमाई जाती। कालांतर में स्वांग की परिणति भगत में हुई।

भगत एक गेय नाटिका है जिसमें प्रथम दृष्य में ही भगवान श्रीकृष्ण के प्रकट होने के कारण धार्मिक भाव है। घर का मालिक अपना काम पूर्ण होने के लिए भगत करवाने की मनौती करता है या मनौती पूर्ण होने की खुशी में भगत करवाता है। कृष्ण लीला की झांकी से भगत आगे बढ़ती है। डेरेदार भगत का निदेशक और मनसुखा उप निदेशक का काम करते हैं। कथा पूर्ण भक्त, रूप बसंत, लक्ष्मी शनीचर, अमरसिंह राठौर, जनरल पृथी सिंह और जनरल शेर खां या कोई अन्य भगत हो, मनसुखा हास्य कलाकार की भूमिका निभाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की झांकी से ही आद्योपांत बना रहता है। वह गोपियों के साथ क्या संवाद करता है, अहम होते हैं। कहीं भगवान भी अपने बोल सुधारने के लिए मनसुखे के सिर पर हल्का हाथ लगा देते हैं। कभी नैपथ्य के संवाद के विपरीत बोलते हुए आगे बढ़ता है। पहले अनपढ़ मनसुखे अरड़-बरड़ (भद्दे संवाद) भी बोल देते थे जो अप्रिय होने पर श्रोताओं को असहज करते थे, लेकिन लोग उसका विरोध नहीं कर पाते। मान लेते कि मनसुखा हंसाने के लिए इसी तरह उलटा-सीधा बोलेगा। लेकिन अबके मनसुखों ने अपने बोल जातिगत, कर्मगत या धर्मगत आक्षेपों से किनारा करते हुए सुधार लिए हैं।

कांगड़ा जनपद के इस भूभाग में आज से साठ-सहत्तर वर्ष पूर्व आलमपुर के मस्तराम और कौना गांव के फूलाराम अपने-अपने समूह के प्रसिद्ध डेरेदार/सरदार थे। इसके अतिरिक्त रसीले दा डेरा, होशियारु दा डेरा, करतारे दा डेरा और चंदे दा डेरा अन्य डेरे थे। फूलाराम की रास में गंदड़ से रमेश और आलमपुर से देशराज के साथ-साथ डूहक से गणू मनसुखा काफी लोकप्रिय थे। और मस्तराम की रास में रिड़कू की प्रतीक्षा दर्शकों को निरंतर रहती थी। होशियारु का डेरा 1920-1950 तक भगत करता रहा।

उसकी कही बातें लोगों को आज भी प्रत्यक्ष लगती हैं। ये मंडलियां मंडी, हमीरपुर, देहरा और ऊना तक रास नाचने जाती थीं। वे भगतिये या रासधारिये के नाम से अभिहीत थे। उन्हें सारे संवाद कंठस्थ होते थे। कहीं भूलने पर स्वयं जोड़-घटा कर लेते थे। वर्तमान काल में चंगर संस्कृति एवं कला मंच तलवाड़ (लंबागांव) के स्ांस्थापक ओमप्रकाश प्रभाकर अपने समूह के साथ भगत करते हैं। वह फूलाराम के डेरे में मनसुखा बनते थे। उन्होंने मंच पर इस तरह काव्य किया है- आता है जी आता है, मनसुख धर्मसभा में आता है। धर्मसभा में आकर सचियां गलां सुनाता है। ‘‘घरे च कुआली बुरी, हिलकदी लाहड़ी बुरी,  छैल दई नार बुरी, मुच्छां वाली लाड़ी बुरी।। आता है जी……।

सर्पे दा सोणां बुरा, पुछबाड़े लोकां दे खड़ोणा बुरा, कुत्ते बिल्ले दा रोणा बुरा।। आता है जी आता है…..। खट्टी खट्टी छाह बुरी, बेटैमे दी तन्खाह बुरी, बेह्ली चपाह बुरी।। आता है जी आता है……..। टुटियो कनात बुरी, भजियो परात बुरी; टेडी कतार बुरी, टुटियो सरकार बुरी।। आता है जी आता है………। लाहड़ू से विश्वानाथ योगी करतारे दा डेरा (बालकरूपी) में मनसुख बनता था। अब हिमालय लोक कला एवं संस्कृति संगम उसका अपना डेरा है।

कुछ लोग भगत के आरंभ में सिद्ध चानों की पूजा करवाते हैं। तत्पश्चात माता की आरती से भगत आरंभ होती है। आंगन से सटे कमरे से मनसुखा फटे बांस के डंडे की आवाज करते हुए प्रकट होता है। वह गोपियों संग चूहल करता है। उनकी कृष्ण के प्रति आसक्ति पर तंज कसता है। उसका अभिप्राय समय पर भी चोट करना होता है। भगवान कृष्ण यमुना किनारे गोपियों संग लीला करते हैं। प्रेमसागर में मनसुखा उस रासलीला में शामिल होता था। उसके बिना रास पूर्ण नहीं समझी जाती। उसी प्रसंग को दर्शकों के समक्ष दोहराया जाता है। इसके साथ ही कांनड़ा राग गायन होता है। भगत का स्वांग निकालता है। पहली झांकी/स्वांग पूर्ण होते ही मनसुखा आ जाता है।

उसका लिबास भी हास्य पैदा करने वाला होता है। अपनी भाव भंगिमाओं के साथ वाक्यों को उल्टा बोलना, अलग ध्वनियां निकालना, शब्द को बिगाड़कर बोलना कि अर्थ निकले, मनसुखा अपनी उपस्थिति सार्थक करने का प्रयत्न करता है। अगली झांकी आते ही वह ओझल हो जाता है। उसी तरह पूरी रात वह जोकर का पार्ट करता हुआ दर्शकों को लोट-पोट करता है। उसे कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता होती है। वह लोगों की वर्तमान परिस्थिति, आर्थिकी,  पहनावे, आपसी रिश्तों, खान-पान, स्वार्थों और व्यापार-व्यवहार आदि पर टिप्पणियां करता है। महंगाई पर फूलाराम के मनसुखा होशियार ने कहा-   बोरियां लेई करी जाणा, सोए दा नोट तड़ाणा।

लफाफियां च ल्औणा कने खाणा, गट्ठी टका नी बचाणां।। कलाकारों के कंठ इतने तीखे होते थे कि दूर-दूर तक सुने जाते थे, लेकिन अब माइक-लाऊडस्पीकर का प्रयोग बेझिझक होता है और इसकी चमक-दमक बरकरार है।


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