लोक कथाओं में हैं :हास्य के विविध रंग

By: Jan 19th, 2020 12:04 am

डा. रणजीत कुमार शर्मा

मो.-9418895319

जिस तरह से हर लोक की अपनी परंपराएं होती हैं, अपनी लोक मान्यताएं होती हैं, अपने लोक विश्वास होते हैं, उसी तरह हर जनमानस का अपना लोक साहित्य भी होता है जिसमें उस जनमानस के दुख-सुख, राग-विराग समाविष्ट होते हैं। जन की भावनाओं से जुड़ा साहित्य वही लोक साहित्य है, जिसकी भाषा  उसी की भाषा होती है। जब न तो साहित्य को कलमबद्ध करने के तरीके ही थे और न ही आनंद के आज की तरह दूसरे अन्य साधन, तब यही लोक साहित्य जनमानस का मनोरंजन करता था, उसके सुख-दुख को वाणी देता था। आज तक लोक साहित्य हर क्षेत्र के लोक के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी चलता जनमानस का मनोरंजन करता रहा है, उसे दिशा देता रहा है। आज भी लोक साहित्य में लोक के लोकगीत, लोक की लोकगाथाएं, लोक की लोककथाएं, लोक में प्रचलित बुझाणियां, लोक का अभिनय करयाला, लोक के सुहागगीत, लोक का गिद्दा, लोक का बांठड़ा, लोक की गंगियां, लोक में गाया जाने वाला बारहमासा के अतिरिक्त और भी न जाने कौन-कौन सी विलुप्त होती विधाएं नौ रसों से सराबोर मिलेंगी। इन सब लोक साहित्य की विधाओं की रचना जनमानस समय के साथ-साथ करता आया है। लोक साहित्य का कोई तय साहित्यकार नहीं होता। पूरा लोक ही उसका साहित्यकार होता है। पूरे लोक की लोक साहित्य के संवर्धन और विकास में अहम भूमिका होती है। हिमाचल प्रदेश के लोक साहित्य में भी अन्य प्रदेशों के लोक साहित्य की ही तरह सबसे अधिक भाव मिलते हैं तो हास्य के। कारण, हास्य जीवन का मूल है। हास्य ही आनंद की उत्पत्ति करता है सबसे अधिक सहजता से। जीवन में हास्य नहीं तो कुछ नहीं। इसीलिए लोक साहित्य में वर्णित हास्य असल में लोक के दुखों, अभावों को भुलाने का सबसे बड़ा स्रोत रहा है। और इन स्रोतों की रचना लोक ही करता आया है अपने उद्गम से। लोक साहित्य में हास्य उतना ही प्राचीन है जितना कि लोक खुद। इसलिए उसमें जनमानस की प्रत्येक विधा, प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक गतिविधि सभी कुछ समाहित है। यह तो तय है कि सामान्य जनजीवन विशिष्ट जीवन से भिन्न होता है, अतः लोक साहित्य का आदर्श भी विशिष्ट साहित्य से भिन्न होता है। उसकी शैलियां भी भिन्न होती हैं। हर क्षेत्र के जनमानस का लोक साहित्य वहां के आरंभिक काल से लेकर अब तक की उन सभी प्रवृत्तियों का प्रतीक होता है जो साधारण जन-स्वभाव की मौलिक प्रवृत्तियां होती हैं। उनमें दिखावा कतई भी नहीं होता। लोक साहित्य में जनजीवन की सभी प्रकार की भावनाएं बिना किसी कृत्रिमता के सहज समाई रहती हैं। ऐसे में यदि किसी क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को समझना हो तो वहां का लोक साहित्य सबसे सरल माध्यम होगा। आज ज्यों-ज्यों लोक साहित्य को लिपिबद्ध करने की सरकारी स्तर पर कोशिश की जा रही है, उसका अपनापन, नैसर्गिकता खत्म होती जा रही है।

कहने को चाहे कोई जो कहे सो कहे कि हम ये कर रहे हैं, हम वो कर रहे हैं, लोक साहित्य के संरक्षण के लिए। हर लोक के लोक साहित्य में अपनी कुछ मौलिक विशेषताएं रहती हैं जो उसे दूसरे हर तरह के साहित्य से जुदा करती हैं- जैसे, लोक साहित्य मौखिक होता है, इसका कोई एक रचनाकार नहीं होता, लोक साहित्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता है, लोक साहित्य लोक की बोली अथवा भाषा में होता है, लोक साहित्य लोक परंपरा का सबसे सशक्त वाहक है। लोक-जीवन की जैसी सरलतम हास्यपूर्ण व्यवहारपरक, नैसर्गिक अनुभूतिमयी अभिव्यंजना का चित्रण  लोक कथाओं में मिलता है, वैसे लोक साहित्य की अन्य विधाओं में नहीं।

लोककथाओं की इसी खासियत की वजह से एक ही लोककथाएं भाषागत, बोलीगत फेरबदल के साथ वृहद क्षेत्र में प्रचलित होती हैं, उनका विषय वही रहता है, एक सा। तभी तो लोक साहित्य के शोधकर्ता इन लोक कथाओं की प्राचीनता को ढूंढते हुए अंत में ऋग्वेद के उन सूक्तों तक पहुंच गए हैं। इन्हीं लोक कथाओं की ब्राह्मण ग्रंथों में भी परंपरा विद्यमान है। यही क्रम उपनिषदों में भी मिलता है, किंतु इन सबसे पूर्व कोई कथा-कहानी थी ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रश्न उठता है जो प्रथाएं उन सबमें आई हैं उनका उद्गम कहां है, जहां उनका उद्गम होगा। लोक कथाएं इन सबसे प्राचीन हैं। आज भी पंचतंत्र की बहुत सी कथाएं लोककथाओं के रूप में जनजीवन में प्रचलित हैं। यही वजह है कि जितनी कथाएं, पंचतंत्र के प्रकार की लोकजीवन में मिल जाती हैं उतनी पंचतंत्र में भी नहीं मिलतीं। इससे यही सिद्ध होता है कि हुआ तो यह होगा कि विष्णु शर्मा ने लोकजीवन में प्रचलित लोककथाओं से लाभ उठाया होगा तो कहना कोई गलत न होगा।

हितोपदेश, बृहद्श्लोक संग्रह, बृहत्कथा मंजरी, कथा बेताल, पंचविंशति आदि का मूल लोकजीवन ही है, लोक जीवन में प्रचलित लोककथाएं ही हैं,  कहने को जो चाहे सो कहे। जातक कथाओं को अत्यधिक प्राचीन माना जाता है। इनकी संख्या पांच सौ पचास के लगभग है, किंतु लोककथाओं की कोई निर्धारित संख्या नहीं कहने का अभिप्राय यह कि लोककथाएं अनंत हैं। उनके लोक का मनोरंजन करने के तरीके असीमित हैं। उनमें जो हास्य है, उसके रूपों की गणना करना कठिन है। आज हम चाहे कितना ही कथा साहित्य रच लें, परंतु सच यह है कि इन सबका योग लोकजीवन में प्रचलित कहानियों की बराबरी तक नहीं पहुंच सकता, और न ही उतना जनमानस का मनोरंजन कर सकता जितना लोककथाएं करती आई हैं। सच पूछो तो रेडियो, दूरदर्शन, मोबाइल, सोशल मीडिया के अभाव में हमारे मनोरंजन का प्रमुख साधन लोककथाएं ही थीं। बचपन में सभी ने अनेक लोककथाएं सुनी होंगी, जिनमें होता था- अपना परिवेश, अपनी हंसी, अपना मनोरंजन। ये लोककथाएं हास्यरस से तो भरपूर होती ही थीं, पर अपने साथ स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु कोई न कोई नैतिक शिक्षा भी साथ लेकर चलती थीं। परिवार को कुछ समय के लिए ही सही, एक साथ बैठाती थीं। अप्रत्यक्ष में इनका मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ ही साथ एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना भी होता था। साथ में ये लोककथाएं इतनी सहज होती थीं कि बच्चे तक इन छोटी-छोटी लोककथाओं के जरिए अपना मनोरंजन भी करते और नैतिकता का वह पाठ भी पढ़ लेते। ऐसे में जो आज के आधुनिक जीवन में हम घर में ही इन लोककथाओं का सहारा लें तो किताबों और पाठ्यक्रमों में नैतिकता पढ़ाने की जरूरत न पडे़, जो हमें आज महसूस हो रही है। संक्षेप में कहा जाए तो हास्यरस की अभिव्यक्ति जितनी लोककथाएं करवाती हैं, उतनी दूसरी परिमार्जित साहित्यिक विधाएं नहीं। यही वजह है कि लोककथाएं आज भी मनोरंजन के बदलते तरीकों के चलते समाज में अपना वजूद बनाए हुए हैं। इसी की वजह से ही तो हम आज भी लोककथाओं को सुनने को बेताब रहते हैं।


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