शिक्षा का अवसाद

By: Jan 23rd, 2020 12:05 am

अध्यापक की पात्रता में हारते मानदंडों की एक शिनाख्त उस परीक्षा परिणाम में हुई जिसे ‘टेट’ के नाम से जानते हैं। हिमाचल में केवल एक शिक्षक ही टेट परीक्षा में असफल नहीं हो रहा, बल्कि इससे शिक्षा प्रणाली का अवमूल्यन स्पष्ट है। टीजीटी मेडिकल में मात्र 5.13 प्रतिशत जबकि आर्ट्स में 12.57 प्रशिक्षित अध्यापक ही पास हो सके। टीजीटी नॉन मेडिकल इस हिसाब से कुछ बेहतर शिक्षकों की उम्मीद में टेट की पास प्रतिशत को 43.65 के आंकड़े में देखता है। जो लोग अपने अध्ययन की कसौटी पर अध्यापन का फर्ज ओढ़ने के इच्छुक हैं, उनकी असफलता का ग्रॉफ पूरी शिक्षा प्रणाली को ही अपराधी बनाता है। यहां वे अध्यापक भी तो हारे जिनके आदर्शों के बीज बोने को उतावले प्रशिक्षित शिक्षक टेट की परीक्षा में उतरे। इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि व्यावसायिक ग्रॉफ की ढलान पर टीचर बनने का मोह केवल बीएड की उपाधि मात्र रह गया है और इसीलिए करियर में तमाम विकल्पों के सामने नकारा होने पर शिक्षक बनने की राह आसान हो जाती है। हो सकता है कि टेट परीक्षा में उतरे कुछ अस्थायी अध्यापक ही सफल हुए हों, या जो निजी स्कूलों में अध्यापन की मेहनत के कारण टिके हों, अबकि बार सफल हो गए हों। ऐसे में शिक्षा विभाग की नियुक्तियों का आलम भी कम दोषी नहीं। सरकारी सेवा में शिक्षक के बजाय उसे कर्मचारी के रूप में प्रवेश कराते-कराते आज स्थिति यह है कि खुद अध्यापक ही चौराहे पर खड़ा है। यकीनन यह शिक्षक और शिक्षण का बाजार भाव है, जो अध्यापक पात्रता परीक्षा के आगे गिर गया। यहां गिड़गिड़ाने की आहट है, मजदूर और मजबूर शिक्षक के बीच समानता ढोने का अवसाद है। यह शिक्षा प्रणाली का अवलोकन और पढ़ाई का मूल्यांकन है। शिक्षा को मात्रात्मक गति देने में भले ही हिमाचल का जिक्र नोबेल पुरस्कार विजेता डा. अमर्त्य सेन करते हों या साक्षरता दर की सीढि़यों पर चढ़ते हुए प्रदेश को शिखर पर देखा जाता हो, लेकिन गुणात्मक दृष्टि से पाठ्यक्रम हार रहे हैं। न शिक्षक और न ही शिक्षा की खोज पूरी हो रही है, लिहाजा निजी शिक्षा के केंद्र भी केवल बाजारवाद पैदा कर रहे हैं। हम पीढि़यां गंवा रहे हैं और सरकारी नौकरी पाने के हथकंडों के बीच शिक्षा की आबरू लुट रही है।  जाहिर है जितने बीएड अभ्यर्थियों ने टेट परीक्षा दी, वे सभी एक तरह के सपने देखते हुए इस मुकाम तक पहुंचे होंगे। बीएड प्रशिक्षण इतना सरल बना दिया गया कि शिक्षा का अवशेष ही वहां पहुंचने लगा। छात्र जीवन की असफलता का पर्याय अध्यापक के माध्यम को चुनना बन रहा है, तो ऐसी कसौटियों में शिक्षा का अभिप्राय कब तक बचेगा। जहां प्रशिक्षित शिक्षक असफल होंगे, वहां शिक्षा के सन्नाटों में तरक्की का उल्लास देखना नामुमकिन है। ऐसे में बीएड मात्र से शिक्षक क्यों बने, जबकि शिक्षक बनने की शर्तों में स्नातक स्तर की पढ़ाई का पड़ाव ढूंढा जाए यानी शिक्षक बनाने की प्रक्रिया में छात्र का रुझान, बौद्धिक कौशल तथा मिजाज को परखा जाए। स्नातक स्तर के अलग से कालेज चिन्हित करके इन्हें शिक्षकों के प्रशिक्षण का अमलीजामा पहनाया जाए। बाकायदा प्रवेश परीक्षा के माध्यम से तय हो कि कितने छात्र जमा दो के बाद अध्यापन का प्रोफेशन चुनना चाहते हैं। मैरिट के हिसाब से छात्रों को शिक्षण का स्नातक व स्नातकोत्तर स्तर उपलब्ध होगा तो इस प्रोफेशन में गंभीरता आएगी, वरना टेट भी कब तक सही अध्यापकों को स्कूलों में भेज पाएगा। शिक्षा विभाग के आगे बिखरे ढेरों प्रमाण पत्र और टेट परीक्षा में गुम हुई योग्यता को पुनर्जीवित करने की चुनौती खड़ी है। इस परीक्षा के सबक केवल नए रोजगार में ही अध्यापक को नहीं देख रहे, बल्कि स्कूलों के भीतर बैठी अकर्मव्यता, विषय अज्ञानता, सरोकार अकालतः और बढ़ती असंवेदनशीलता की ओर भी इशारा कर रही है। टेट में फेल कोई छात्र नहीं हुआ, बल्कि वह व्यक्ति हुआ जो बतौर छात्र किसी अध्यापक की शरण में रहा या जिसने कल किसी छात्र को इसी तरह की किसी प्रतिस्पर्धा के लायक बनाने के लिए, अध्यापक बनना पसंद किया।

 


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