संघर्ष या समर्पण

By: Jan 18th, 2020 12:20 am

ओशो

जीवन जीने के दो ढंग हैं। एक ढंग है संघर्ष का, एक ढंग है समर्पण का। संघर्ष का अर्थ है मेरी मर्जी समग्र की मर्जी से अलग। समर्पण का अर्थ है, मैं समग्र का एक अंग हूं। मेरी मर्जी के अलग होने का कोई सवाल नहीं। मैं अगर अलग हूं, संघर्ष स्वाभाविक है। मैं अगर इस विराट के साथ एक हूं, समर्पण स्वाभाविक है। संघर्ष लाएगा तनाव, अशांति, चिंता। समर्पणः शून्यता, शांति, आनंद और अंततः परमज्ञान। संघर्ष से बढ़ेगा अहंकार, समर्पण से मिटेगा। संसारी वही है जो संघर्ष कर रहा है। धार्मिक वही है, जिसने संघर्ष छोड़ा और समर्पण किया। मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद जाने से धर्म का कोई संबंध नहीं। अगर तुम्हारी अपनी कोई इच्छा है, तो तुम अधार्मिक हो। जब तुम्हारी अपनी कोई चाह नहीं, जब उसकी चाह ही तुम्हारी चाह है। जहां वह ले जाए वही तुम्हारी मंजिल है। जैसा वह चलाए वही तुम्हारी गति है, तुम्हारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं। जितना तुम लड़ते हो उतना तुम भारी हो जाते हो, जितने भारी होते हो उतने नीचे गिर जाते हो। जितना तुम लड़ते नहीं उतने हल्के हो जाते हो, जितने हल्के होते हो, उतने ऊंचे उठ जाते हो। अगर तुम पूरी तरह संघर्ष छोड़ दो, तो तुम्हारी वही ऊंचाई है, जो परमात्मा की। ऊंचाई का एक ही अर्थ है निर्भार हो जाना और अहंकार पत्थर की तरह लटका है तुम्हारे गले में। जितना तुम लड़ोगे उतना ही अहंकार बढ़ेगा। ऐसा हुआ कि नानक एक गांव के बाहर आ कर ठहरे। वह गांव सूफियों का था। उनका बड़ा केंद्र था। वहां बड़े सूफी थे, गुरु थे। खबर मिली सूफियों के गुरु को, तो उसने सुबह की सुबह नानक के लिए एक कप में भर कर दूध भेजा। दूध लबालब था। एक बूंद भी और न समा सकती थी। नानक कुएं के बाहर ठहरे थे एक कुएं के तट पर। उन्होंने पास की झाड़ी से एक फूल तोड़ कर उस दूध की प्याली में डाल दिया। फूल तैर गया। फूल का वजन क्या! उसने जगह न मांगी। वह सतह पर तैर गया और प्याली वापस भेजी दी। नानक का शिष्य मरदाना बहुत हैरान हुआ कि मामला क्या है? उसने पूछा कि मैं कुछ समझा नहीं। क्या रहस्य? यह हुआ क्या? नानक ने कहा कि सूफियों के गुरु ने खबर भेजी थी कि गांव में बहुत ज्ञानी हैं, अब और जगह नहीं। मैंने खबर वापस भेज दी है कि मेरा कोई भार नहीं है। मैं जगह मांगूगा ही नहीं, फूल की तरह तैर जाऊंगा। जो निर्भार है वही ज्ञानी है। जिसमें वजन है, अभी अज्ञानी है और जब तुममें वजन होता है, तब तुमसे दूसरे को चोट पहुंचनी असंभव हो जाती है। अंहिसा अपने आप फलती है। कोई प्रेम को लगा नहीं सकता और न कोई करुणा को आरोपित कर सकता है। अगर तुम निर्भार हो जाओ, तो ये सब घटनाएं अपने से घटती हैं। जैसे आदमी के पीछे छाया चलती है, ऐसे भारी आदमी के पीछे घृणा, हिंसा, वैमनस्य, क्रोध, हत्या चलती है। हलके मनुष्य के पीछे प्रेम, करुणा, दया, प्रार्थना अपने आप चलती है। इसलिए मौलिक सवाल भीतर से अहंकार को गिरा देने का है।


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