सशक्त माध्यमः बांठड़ा

By: Jan 26th, 2020 12:04 am

जनमानस के हास्य-मनोरंजन का

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि और संभावना-9

अतिथि संपादक : अशोक गौतम

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि तथा संभावनाएं क्या हैं, इन्हीं प्रश्नों के जवाब टटोलने की कोशिश हम प्रतिबिंब की इस नई सीरीज में करेंगे। हिमाचल में व्यंग्य का इतिहास उसकी समीक्षा के साथ पेश करने की कोशिश हमने की है। पेश है इस सीरीज की नौवीं किस्त…

विमर्श के बिंदु

* व्यंग्यकार की चुनौतियां

* कटाक्ष की समझ

* व्यंग्य में फूहड़ता

* कटाक्ष और कामेडी में अंतर

* कविता में हास्य रस

* क्या हिमाचल में हास्य कटाक्ष की जगह है

* लोक साहित्य में हास्य-व्यंग्य

कृष्णचंद्र महादेविया

मो.-8679156455

बांठ शब्द में पहाड़ी का ड़ा प्रत्यय लगा है। ड़ा का अर्थ है संबंधित या जुड़ा हुआ। पुराने समय में बांठ बैंठ (पंगत) में बिठाने, पत्तल दोने आबंटित करने और इस संबंधी काम करने की जिम्मेवारी थी। बैंठ बिठाने वाले अर्थात बांठ। इन्हीं के साथ राजा की रसोई में एक अन्य राजा से कभी रण में हारा हुआ क्षत्रिय समुदाय भी जल भरने का और पंक्ति में पानी आबंटित करने का कार्य करते थे, जिन्हें जलैहरू शब्द से संबोधित किया जाता था। ये दोनों बांठू और जलैहरू राजा की रसोई में राज परिवार, कारिंदे, साधु-संन्यासी, चेला-पुजारी, मेहमान स्त्री पुरुष, अंग्रेज, नर्तक-नर्तकियां, गायक-वादक, किसान-चौकीदार, पहरेदार-माली, लाला आदि सभी तरह के लोग भोजन ग्रहण करने आते थे। पहाड़ी कहावत है कि ‘जिसजो केत्थी नी ढोई तिस्सो राजे री रसोई’। इन सभी के नाज-नखरे, जुदा-जुदा रंग-ढंग, कार्यकलाप देखकर बांठू और जलैहरू उनकी नकल उतारते खूब हास्य बिखेरते जिसमें अपनी तकलीफ  को दर्शाते व्यंग्य-चोट का पुट भी खाते थे। सताने वाले राज या राजा के गलत आदेश को गलत ठहराते, उनकी नकल उतारते आपस में हंसी-मजाक करते थे। एक बार सुकेत के राजा ने चुपके से उनके नकल उतारने और हास्य-व्यंग्य, हास-परिहास, कलाकारी के माध्यम से सही बात कहने को बड़े चाव से देखते रहे। आमना-सामना होने पर भयभीत बांठ-जलैहरूओं को राजा ने प्रोत्साहित किया।

इस तरह बांठड़ा का प्रादुर्भाव हुआ। फिर तो राजा ने समय-समय पर राजसी समारोहों में आमंत्रित करना आरंभ किया। बांठ शब्द के अर्थ को सुंदर से भी लिया जाता है। बांठड़ा यानी सुंदर किया जाने वाला कार्य, यह नाट्य बांठड़ा हुआ। कुछ विद्वान बांठ शब्द को भांड से और भांड को भार्ण से निकला मानते हैं। भार्ण को दृश्य काव्य का एक रूपक माना जाता है, जो हास्य रस प्रधान है। किंतु लोक नाट्य बांठड़ा बैंठ बिठाने वालों और पानी पिलाने वालों के अधिक करीब है। बणा-ठणा यानी बांठड़ा। बनते-संवरते कलाकारी करते भी बांठड़ा दृष्टव्य है। सुकेत रियासत से ही बांठड़ा मंडी रियासत में गया है। बांठड़ा लोक चुटीले संवाद और बात पर बात निकालते या प्रश्नोत्तरी करते पात्र हास्य रस बिखेरते, तीखे व्यंग्य की धार से कुरीतियों, कुनीतियों, अंध-विश्वासों पर प्रहार कर समाज को जागरूक करते हैं। खुला मनोरंजन तो होता ही है। बांठड़ा लोकनाट्य में वेशभूषा और संगीत पक्ष काफी उज्ज्वल होता है। अनेक बार ऐसा प्रतीत होता है कि बांठड़ा लोक गीत नाट्य बुढड़ा से उत्प्रेरित है।

वेशभूषा

हास्य रस की प्रधानता होने के कारण वेश और भूषा से भी हास्य-व्यंग्य की धारा बहती है। मुखौटा-धोती के प्रयोग से लेकर, चोला-चुड़ीदार पायजामा, फटे-पुराने कपड़े, जटाएं-दाढ़ी आदि। जटाएं, बाल दाढ़ी बिहुल या भांग प्राकृतिक रेसे की बनाई जाती है। कालिख तवे से लेते हैं।

संगीत व नृत्य

नगाड़े-शहनाई, मुख्य लोक वाद्य रहते हैं, किंतु करनाल, चीमटा, रणसिंगा, शंख आदि को भी समाविष्ट कर लिया जाता है। फुमणी, लुड्डी, नाटी, गिद्दा, बांठड़ा नाच की तरह मिश्रित नृत्य अंकानुकूल रहता है।

मंच एवं प्रकाश व्यवस्था

बांठड़ा का मंचन कहीं पर भी यथा नुक्कड़, आंगन, चौपाल, खेत खुले मंच में किया जा सकता है। पुराने समय में सरसों तेल की मशालें, दीप और जुगनियों के प्रकाश में, अलाव जलाकर, बाद में गैस-लालटेन तथा आजकल विद्युत रोशनी में अभिनीत किया जाता है।

प्रारंभ

मंच पर आग जलाई जाती है। बांठड़ा के आरंभ में अलाव जलाने की परंपरा सर्दी से बचाव व प्रकाश व्यवस्था की ओर संकेत है। बांठड़ा का विधिवत प्रारंभ हरि रंग से होता है, जिसमें कृष्ण (हरि) की वेशभूषा में पुरुष पात्र और दो गोपियां महिला पात्र नृत्य करते, रूठते और मनाने का अभिनय करते हैं। लोक संगीत बराबर चलता है। हरियानी कृष्ण के चेहरे पर मुखौटा होता है जबकि गोपियां घुंघट बनाए रखती हैं। इसके उपरांत माल का स्वांग नाट्य चलता है, जिसमें सूत्रधार और कलाकार वाद-संवाद करते हास्य बिखेरते बीच में व्यंग्य मारते हैं। गीत-संगीत बराबर चलता है। सुकेत के बांठड़ा में प्रारंभ में वन देवता की पूजा होती है।

बांठड़ा के हास्य रस भरे और व्यंग्य मारते स्वांग

मनमोहणी और भुजडू का स्वांग

साधु का स्वांग

साहब-मेम का स्वांग

डाऊ का स्वांग

स्वांगों में पात्र परंपरागत संवादों के समय अपने संवाद भी जोड़ लेते हैं। वस्तुतः लोकनाट्य बांठड़ा में प्रमुख पात्र और प्रत्येक ओर प्रमुखता सूत्रधार की रहती है। उसकी प्रस्तुति पर ही सफलता-असफलता निर्भर रहती है।

डाऊ के स्वांग की झलक

गद्दी और दो गद्दने मंच पर एक कोने पर सूत्रधार खड़ा रहता है। गद्दी बांठड़ा लोक नृत्य करता है, जो कि एक हाथ आगे घुमाता है जबकि दूसरा कमर पर रहता है। कमर-टांगे नाटी की भांति रखता है, गाता भी है, नगाड़ा, शहनाई बजते हैं।

ओ लाच्छो गदणी भलिए ओ, ये भली लाच्छो गद्दन।

चम्बा नेडड़े की दूर। चम्बा नजदीक है या दूर।

गद्दी वले चलेया चाकरिया, गद्दी नौकरी को चला।

गद्दणी रे पेटा टूम्ब। गद्दन के पेट में मरोड़।

ओ लाच्छो गद्दणी भलिए ओ, ये भली लाच्छो गद्दन?

चम्बा नेडड़े की दूर। चम्बा नजदीक है या दूर।

गाना रुकने पर दोनों गद्दने पेट पकड़ कर दर्द से कराहने लगती हैं।

गद्दने- ओए गद्दी मित्रा कहां से आया होर कहां जाएगा?

गद्दी-  ओ भाइथु, मैं लौहला ते आया हूं और चम्बे जो जा रहा हूं।

सूत्रधार- ये किल्हण ताल डाला है ये कौन है, त्हारी बुआ……………।

गद्दी- चुप्प चुप्प चलाका, जादा नी खोल खाखा। ये मेरी लाडि़या मेरे साथ रहती हैं।

सूत्रधार-  भेडा-बकरियां ता दिखदी नईं

गद्दी- भेड़े बकरियां, कुछ आगे तो कुछ पिछे, पर भाई बड़ी बकरियां तो ये सौगी है। तूं कुछ भला आदमी है कोई नेता नी  लगता हन। इक काम तो कर।

सूत्रधार- एक नहीं दो बता मित्रा।

गद्दी- मेरी ये दोनों गद्दनियों के पेट में दर्द कोई गुर-चेला, डाऊ-साऊ तो दस्स मेरा भाई।

सूत्रधार- मिलणे ता भतेरे, जब गद्दीया दे हो डेरे। है कोई चेला, करे संगेला! चेला आता है

सूत्रधार- हे देवुआ, आप कौण?

चेला- मैं चेला हूं। किसी को छाड़, किसी की छायां, किसी को भूत लगा हो, उन्हें ठीक करता हूं। पेट में, टांग में दर्द हो, सबका इलाजऽऽ करता हूं।

सूत्रधार- एक छैल गद्दी आया है, साथ में उसकी दो गद्दणे हैं। उनके पेट में दर्द है, उनका इलाज करना है।

चेला- इलाज कर तो दूं, पर गद्दी, गुज्जर, जट, लवाणा, ये बचन देकर मुकर जाते हैं। हां, मेरी दान-दछणा और एक काली भेड़ मुझे चाहिए।

सूत्रधार- जै हो महाराज, गद्दणों के पेट की पीड़ ठीक हो जाए वह सब देगा। मोटी सामी है, मंत्री-बजीर की तरह। सूत्रधार गद्दी के पास लेकर जाता है।

गद्दी- ये होंए चेला जी, शकल ता नार सिंघा वाली है। चेला जी मेरी गद्दणियां रा लाज करी दे।

चेला- हां मैं करी देणा, काली भेड़, किछ दान-दछणा भी लगणी।

गद्दी- सब मिलेगा, पर ठीक ता कर।

चेला- ठीक है (मंत्र पढ़ता है) चल-चलंतर, मेरा मंतर गद्दणी बांकी, छैल झांकी। ठीक हो पीड़ स्वाह। (गद्दणों के पेट की दर्द ठीक हो जाती है)

गद्दण- मेरी पीड़ गई

गद्दण- (दूसरी) मेरी बी गई बोबीए।

चेला-  दे मित्रा भेड़।

गद्दी-  मैं नी दें दां। गद्दणी ता आपू ठीक होई।

चेला- तंत्र-मंत्र गुरू डफंतर। चेला चोटा, मोटा सोआ। (हाथ में आटा लेकर गद्दी के मुंह पर मारता है) जा, हखफूटा हो जा।

गद्दी-  हाय ओए लोको, मुझे कुछ नहीं दीख रहा है।

चेला- (दोनों गद्दणियों के हाथ पकड़ कर ले चलता है) चलो दोनों, मेरी मौज लगेगी मंत्रियों की तरह।

गद्दी- (आंखें मलकर) हाय! मेरी लाडि़या। मेरी गद्दनियां।

सूत्रधार- गद्दनियां लई चलेया चेला। इस जो माल मिलेया सबेला। देयी मर भेड निता गई गद्दनियां।

गद्दी- भाई रोक-रोक चेले को, मैं दे देता हूं भेड़। हां भेड़ माहणू को चालाक भेड़ की तरह खा जाते हैं।

सूत्रधार- (चेले के पास जाकर) चेला साहब, मान गया। गद्दी मित्र। भेड ले जा गद्दणी छोई जा। (थोड़ा धीरे से जनता को सुनाकर) भेड़ और जनता एक ही होती है। भेड़ की ऊन तक नहीं छोड़ते काट कर खा जाएंगे। वैसे ही जनता है सब सहेगी चुप रहेगी।

चेला- लींडी भेड़ ना हो, सनक्खी चाहिए हां।

गद्दी- मिल जाएगी। मैं मान गया हूं। चेला भाई भेड़ी होर लेडी सब मर्दों को खरी लगती है।

चेला- तो ले संभाल अपनी गद्दनियां। लोका जो एक नहीं, इसकी दो-दो। ले छोड़ देता हूं। जा तेरी आंखें भी ठीक हो जाएगी।

गद्दी- जै हो चेला जी। (चेला चला जाता है) (गद्दनियां-गद्दी के पास जाकर गाता है)

गद्दनियां- म्हारा गद्दी पतला पतंग, जाना हमने गद्दीए रे संग।

एक गद्दन- दीदी तैं क्या ओ देखा, क्या ओ देखा जो चली गद्दी मित्रा दे संग।

दूसरी- सिरा टोपा ओ देखा, कमरा सेला ओ देखा छैल़ छबीला ओ देखा, जाना गद्दीए के संग। ( नाचते-नाचते स्वांग खत्म हो जाता है। संगीत बराबर चलता है। खास अदा पर नगाड़े पर दो-तीन चोब इकट्ठी बजती हैं।)

और ऐसे जनमानस इन दृश्यों को देखकर बिना लोटपोट हुए नहीं रह पाता। इस तरह बांठड़ा जनमानस को वह मनोरंजन हास्य के द्वार खोलता है जो बड़े-बड़े थिएटर अपने दर्शकों को नहीं खोल पाते।

 

 

 


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