अग्नि परीक्षा

By: Feb 28th, 2020 12:05 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

दुल्हन के प्रवेश के साथ ही दूल्हे की शर्त सुनकर पूरे घर में सन्नाटा छा गया। दूल्हे की मांग थी कि दुल्हन सीता को पहले अग्नि परीक्षा देनी होगी। सारा मोहल्ला दूल्हे रामलाल की घोषणा से हतप्रभ था। मुझे जानकारी हुई तो हैरानी से अपनी पत्नी का मुंह ताकता रह गया। पत्नी बोली-‘जाओ रामलाल को समझाओ यह जिद ठीक नहीं है। बिना बात वह अग्नि परीक्षा क्यों कर देगी? न कोई रावण उसे अपनी लंका में ले गया और न ही उसने कोई दूसरा गलत कार्य किया है।’ मैंने कहा-‘मेरी समझ में यह नही आ रहा कि रामलाल की ओर से यह मांग उठी क्यों है? अभी सात फेरों के समय अग्नि के समक्ष उसने जो शपथें खाकर उसकी अर्धांगिनी होना स्वीकारा है, क्या यह पर्याप्त नहीं है।’ ‘दरअसल रामलाल का मानना है कि यदि सीता दुल्हन सती-सावित्री है, तो उसे अग्नि परीक्षा में कुछ नहीं होगा। वह यह भी कहता है कि जमाना खराब है। किसी का विश्वास नहीं।’ ‘अरे छोडि़ए, खामख्वाह की बात। आपको भी देनी पड़ जाती मेरे सामने तो अग्नि परीक्षा।’ मैंने कहा-‘यह तो पारंपरिक विश्वास की बात है-वरना यह शर्त तो हम भी लगा सकते थे।’ मैं चुप रहा। सीधा रामलाल के घर पहुंचा तो वह बैठक में परशुराम जी की तरह क्रोध में नाक फुलाए इधर से उधर टहल रहा था। मैंने छूटते ही कहा-‘भाई रामलाल इस जमाने में तुम्हारी यह मांग ही अनुचित है। यह कलियुग है, कलियुग कोई सतयुग तो है नहीं जो सीता साबुत निकल आए। सीता का अग्नि में कूदने का मतलब वह अपनी जान से हाथ धो दे। ‘मेरा आश्य कोई समझ तो पा नहीं रहा और बात का बतंगड़ बना रखा है। मैं कहता हूं कि सीता को अग्नि परीक्षा तो देनी होगी। वह इससे इनकार क्यों करती है ?’ रामलाल बोला। मैंने कहा-‘वह इसलिए मना कर रही है क्योंकि यह गलत परंपरा है। अभी यदि तुम्हारे कहने से उसने परीक्षा दे दी तो जो सीताएं वाकई गलत हैं, वे तो उस परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाएंगी। जमाने के मूल्यों को समझो तथा ऐसी कोई जिद मत करो जिससे कानून और व्यवस्था में खलल पड़ता हो। सीता आज के गंगाजल की तरह पवित्र है। राम की गंगा कभी मैली नहीं हो सकती रामलाल।’ ‘मैली नहीं है, तो आग के अंगारों को कूद क्यों नहीं जाती।’ ‘जहां तक कूदने की बात है, वह तैयार है, परंतु युग की मान्यताओं को आघात लगता है। सच तो यह है कि दहेज के कारण उसे अग्नि परीक्षा तो देर-सवेर देनी है, परंतु अभी चार दिनों के लिए तो उसे तुम हृदय से स्वीकार कर स्नेह दो।’ 


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