आत्म पुराण

By: Feb 22nd, 2020 12:16 am

गतांक से आगे…

यहां सत्य रूप उपेय को प्राप्त करने के यह छः उपाय हैं साथ ही यह दूसरे के कारण भी हैं। सनतकुमार ने कहा, हे नारद! जो पुरुष उस सत्यस्वरूप ब्रह्म को जानता है, वही सत्य वस्तु का स्पष्ट रूप से वर्णन कर सकता है। उस सत्य का वर्णन करने में प्रत्यक्ष प्रमाण रूप विज्ञान ही कारण है। नाना प्रकार की युक्तियों से उस सत्य वस्तु का जो चिंतन रूप मनन उसी से सत्य संबंधी असंभावना की निवृत्ति होती है। तभी सत्य वस्तु का विज्ञान विदित होता है। अतः मनन विज्ञान का कारण है। हे नारद! गुरु,शास्त्र के उपदेश में श्रद्धा होने से ही पुरुष मनन में प्रवृत्त नहीं हो सकता। श्रद्धा से रहित नास्तिक पुरुष मनन में प्रवृत्त नहीं हो सकता। इससे श्रद्धा ही मनन का कारण है। हे नारद! यह वेदांत शास्त्र जीव और ब्रह्मा के अभेद को कथन करता है। इसका निश्चय कराने वाली युक्तियों के चिंतन करने को निष्ठा कहते हैं। बिना ऐसी निष्ठा के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती। इससे निष्ठा ही श्रद्धा का कारण है। हे नारद! यज्ञादिक जो बहिरंग साधन हैं तथा शम,दम आदि जो अंतरंग साधन है, उन दोनों के अनुष्ठान का नाम कृति है। जो पुरुष ऐसी कृति वाला होता है,वही अंतःकरण की शुद्धि तथा एकाग्रता से युक्त होकर निष्ठा को प्राप्त कर सकता है। इससे कृति निष्ठा का कारण है। हे नारद! जो पुरुष उस संसार में सुखरूप पुरुषार्थ प्राप्त करने की इच्छा करता है,वही वहिरंग और अंतरंग साधनों को करता है। इसलिए वह सुख रूप पुरुषार्थ को इच्छा कृति का कारण है। श्रीगुरुदेव कहने लगे कि हे शिष्य! श्री ब्रह्माजी ब्रह्म लोक में निवास करते हैं, जो अत्यंत विस्तार युक्त है।

वहां किसी को कोई दुःख नहीं होता और तीनों प्रकार के ताप निवृत्त हो जाते हैं वहां एरमदीप नामक महासरोवर है,जो उपासक पुरुषों को पाप-पुण्य कर्मों के क्षय होने के अनंतर प्राप्त होता है। वह सरोवर इरा नाम वाले अन्न का रस और मद रूप है और इसी कारण शारूत्र वेत्ता पुरुषों ने उसका नाम एरमदीप रखा है और उसी ब्रह्मलोक में अश्वत्थ वृक्ष के आकार का एक कल्पवृक्ष भी है, जिसका नाम सोमसवन है। उससे सब प्राणी मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं। उससे सदैव अमृत झरता रहता है। अर तथा पण्य नाम के दो तालाब भी वहां हैं, जो समुद्र के समान विस्तार वाले हैं और दूध, दही, घी से परिपूर्ण हैं। उस ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी का जो सभा भवन है, उसमें विचक्षणा नाम की एक वेदी है,जो सर्व शुभ लक्षणों से युक्त तथा सर्व जगत का कारण है। उस वेदी में एक अभितेजस नाम का प्राण रूप पर्यंङक स्थित है।

उस प्राण की वाजसनेय शाखा वाले ब्राह्मण उदगाता के रूप में उपासना करते हैं और  छांदोग्य शाखा वाले उदगीथ के रूप में उपासना करते हैं। उस प्राण रूप पर्यंङक के पूर्व दिशा की तरफ के दो पाद तो भूत भविष्यत जगत रूप हैं और लक्ष्मी तथा पृथ्वी यह दोनों उसके पश्चिम दिशा के दो पाद हैं। वृहत साम और रथंतर साम यह दो प्राकर का सामवेद दक्षिण उत्तर दिशा के दीर्घ काष्ठ मय दो पटिका हैं। मंत्र रूप ऋग्वेद तथा मंत्र रूप सामवेद यह दोनों उस पर्यङक की पूर्व-पश्चिम दिशा के दीर्घ सूत्रमय पटियां हैं।                               – क्रमशः


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