कविता : बचपन कहीं खो गया है

By: Feb 19th, 2020 12:20 am

कहां खो गई है , वह खिलखिलाती सी हंसी, उदासी का साया बचा है, तनाव और बोझ के तले दब गया है, नन्हा सा बालक, मासूम की तरफ देखकर लगता है बचपन कहीं खो गया है। जहां छोटी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करते थे, नन्हे उस्ताद आजकल क्यों मासूमों के कंधों पर भारी बस्ते टंगे हैं, उदासी से भरे इनके चेहरे को देखकर लगता है बचपन कहीं खो गया है। शायद बच्चों के बचपन की जिम्मेदारियों ने झुका दिया है। बुढि़या के लाल बालों को उनसे छीन लिया है। सर्कस का वह भालू भी कहां खो गया है। गली मोहल्ले सभी खाली दिखाई पड़ते हैं, अब न कहीं गिल्ली डंडे दिखते हैं, न वह लट्टू नजर आता है,  दादी-नानी की  वे कहानियां न जाने कहां खो गई हैं, दुखी सा बचपन देखकर लगता है, बचपन कहीं खो गया है। वह गांव खत्म हो गया है, जहां बचपन हुआ करता था अनमोल। वह हंसी, वह शरारत, वह रूठना मनाना, जिद पर अड़ जाना। वह धूप पर निडर होकर खेलने के लिए भाग जाना, घर आकर भी डांट खाना, सब कुछ बदल गया है, यह देखकर लगता है, बचपन कहीं खो गया है।

– मंजु शर्मा, सोलन

 


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