किताब बनाम तेजाब

By: Feb 25th, 2020 12:05 am

इस घटना की आह में हिमाचल का पूरा समाज वर्णित है और इस भंवर में शिक्षा का पूरा माहौल प्रदर्शित है। हमीरपुर के एक स्कूल में विज्ञान की प्रयोगशाला घातक हो गई और दसवीं परीक्षा का प्रैक्टिकल एक छात्र के वजूद को अपराधी बना देता है। कथित तौर पर वार्षिक परीक्षा के वातावरण में उड़े तेजाब के छींटे उन सारी करवटों को सन्न कर देते हैं, जो हिमाचल को अति साक्षर बनाती हैं। घटना में तीन सहपाठियों को तेजाब की बौछार से घायल करने वाले छात्र पर अनेक सवाल उठेंगे, लेकिन इस स्थिति तक पहुंचे स्कूल का बचाव पक्ष भी दिखाई नहीं दे रहा। हिमाचल का शैक्षणिक माहौल या तो छात्र संख्या का गणित बन रहा है या स्कूलों की बढ़ती तादाद का मकसद बनकर दर्ज है। अध्यापक वर्ग प्रस्तावित स्थानांतरण नीति के खिलाफ, अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी नौकरी तक पहुंचाने तथा नेता नए स्कूल खुलवाने में व्यस्त हैं, तो छात्रों के आचरण में आ रहे बिखराव को कौन समेटेगा। कहीं न कहीं पूरी परिपाटी ही दोषपूर्ण समझौते कर चुकी है। ऐसे में न स्कूल की गवाही में वांछित शिक्षा मिल रही है और न ही शिक्षक की रहनुमाई में छात्र का व्यक्तित्व विकास हो रहा है। एक अजीब खींचतान में हर कोई छात्र वर्ग को आगे धकेल रहा है, जबकि मानसिक उत्थान के लिए घर से करियर तक का सफर भ्रमित है। या तो मशीन मॉडल की तरह शिक्षा छात्रों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा की तरह बंट रही है या मुनादी की तरह आकर्षित कर रही है। चर्चा सर्वांगीण विकास के बजाय परीक्षा परिणामों में उपलब्धियां खोजने की हो जाती है, लिहाजा स्कूल छात्रों के अध्यापन की चुनौतियों पर विचार नहीं होता। अध्यापन को पाठ्यक्रम के इर्दगिर्द सशक्त करने के बजाय उस संतुलन पर गौर किया जाए जो बच्चों में शैक्षणिक ज्ञान उपार्जन को जीवन के हुनर में आगे बढ़ना सिखाता है। यहां सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण की वजह आपसी व्यवहार से होते हुए बच्चों के पालन पोषण तक है। अगर बचपना बचाया नहीं गया, तो स्कूल की सीढि़यों पर फिसलने का खतरा है और यही वजह है कि नशे का कारोबार चुपके से अपना काम कर जाता है। निर्दोष बच्चों को नशे और आपराधिक तंत्र से दूर रखने के लिए मां-बाप और स्कूल प्रशासन के साथ-साथ समाज के सामने भी एक बड़ी चुनौती है। केरल में बाकायदा ‘गुरुकुलय’ परियोजना के तहत पुलिस विभाग ने कोट्टायम जिला के स्कूलों को जोड़ा है। इसके तहत सभी स्कूलों की दैनिक अनुपस्थिति का रिकार्ड मांगा जाता है और साथ ही गैर हाजिर बच्चों के अभिभावकों से इसका कारण पूछा जाता है। बिना कारण गैरहाजिर रहे बच्चों के अभिभावकों व स्कूल प्रशासन को सचेत करके उन पर नजर रखी जाती है। इतना ही नहीं सिनेमा थियेटर, शराब की दुकानों तथा वीरान जगहों पर नजर रखते हुए ऐसे बच्चों को बचाने के लिए काउंसिलिंग तथा पुनर्वास सुनिश्चित किया जाता है। हमीरपुर की घटना में एक बच्चे की हरकत को महज अपराध की परिभाषा में छानने के बजाय इसे बुरे उदाहरण की तरह खंगालना होगा, ताकि कल कोई अन्य छात्र किताब की जगह तेजाब जैसा इस्तेमाल न करे। बच्चों का अपने मां-बाप और शिक्षकों से घटता संवाद भी कई बार आक्रोशित करता है। हिमाचल के दुरुह इलाकों में शिक्षकों का लगातार बने रहना आज भी एक चुनौती है। विडबंना यह भी है कि हिमाचल में अध्यापन एक तरह से सरकारी नौकरी का सबसे अहम जरिया है, लेकिन दूसरी तरफ इस प्रोफेशन को थक हार कर ही युवा अपना रहे हैं। ऐसे असंतुष्ट अध्यापकों के आगे पहले शिक्षा हारी और अब तो छात्र भी उदासीन होने लगे हैं। शिक्षक की विवशता अपने सेवाक्षेत्र और सुविधाओं को लेकर हो सकती है, क्योंकि जिस व्यवस्था के तहत वह कार्यरत है वहां वह आधारभूत परिवर्तन लाने के लिए अपनी ओर से कुछ कर भी नहीं पाता। स्कूल खोलना, स्तरोन्नत करना या इमारतें बना देने से शायद ही छात्रों के अरमानों को मंजिल मिलेगी, बल्कि पारंपरिक क्लासरूम से कहीं भिन्न सीखने का वातावरण, वैकल्पिक रणनीति तथा अध्यापन के तरीके विकसित करने होंगे। छात्र शिक्षा ग्रहण करने को आंतरिक क्षमता के विकास से तभी जोड़ेंगे, अगर स्कूल केवल बंद दीवारों की पेशकश नहीं होंगे। दिल्ली का उदाहरण अगर मेलानिया ट्रंप को ‘खुशी की क्लास’ में पहुंचा रहा है, तो शिक्षा की अवधारणा बदल रही है। बच्चों के मानसिक तनाव व अवसाद को दूर करने के लिए दिल्ली के स्कूलों में चल रही ‘हैप्पीनेस क्लास’ से हिमाचल बहुत कुछ सीख सकता है।


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