कोरोना वाइरस

By: Feb 25th, 2020 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

पंडित जॉन अली ने सुबह-सुबह ही मेरे घर पर धावा बोल दिया। आते ही बोले, ‘‘मियां! हुजूर की खिदमत में चाय पेश की जाए। चाय की एवज में हुजूर तुम्हें ऐसे ज्ञान से बख्शेंगे, जो हमारी सनातन परंपरा में हमारी उत्पत्ति के समय से ही मौजूद है। यह हमारी जड़ों में सनातन हड्ड-हरामी की तरह वैसे ही धड़कता है, जैसे सीने में दिल।’’ उनके इस हमले से सकपकाए हुए जब मैंने उनके चेहरे पर नजर डाली तो बोले, ‘‘पहले चाय, फिर अगली बात।’’चूंकि मेरी धर्मपत्नी मोहल्ले में किसी कीर्तन में गला साफ करने गई हुई थी, मुझे खुद ही किचन में जाकर चाय बनानी पड़ी। चाय का पहला घूंट भरते ही पंडित जी ने आशीर्वचनों की झड़ी लगा दी, ‘‘़खुदा तुम्हें लंबी उम्र बख्शे! चाय का स्वाद वैसे ही आया जैसे आजकल किसी बेरोजगार, किसान, गरीब या मध्यमवर्गीय को भारत में हो रहे अंधाधुंध विकास में आ रहा है।’’ मैं झल्लाते हुए बोला, ‘‘पंडित जी, महंगाई ने पहले ही चरित्र की तरह कमर सीधी कर दी है। उस पर एक तो लंबी उम्र का आशीर्वाद दे रहे हो, दूजे मेरी चाय की अंधाधुंध विकास से तुलना कर रहे हो। खैर छोड़ो। मेरी चाय की दक्षिणा दो अर्थात् अपना ज्ञान बघारो, जो आप मुझे देने वाले थे।’’ अब पंडित जी सीरियस होते हुए बोले, ‘‘आजकल कोरोना वायरस ने पूरे संसार में कोहराम मचाया हुआ है। लोग पानी पी-पीकर चीन को कोस रहे हैं। कहा जा रहा है चीन ने बॉयो वॉर के लिए कोरोना ईजाद किया था, लेकिन जार टूटने की वजह से खुद ही इसका शिकार हो गया। पर हमारे यहां तो यह वायरस मानव के अस्तित्व में आने से पहले भी मौजूद था।’’ किसी अंध भक्त की तरह मैं हाथों में पत्र-पुष्प लेकर बैठ गया और बोला, ‘‘पंडित जी, इसके बारे में विस्तार से बताइए।’’ किसी औघड़ ज्ञानी की तरह वह मुस्कराते हुए बोले, ‘‘जैसा नाम से ही विदित है। ‘करो न’ अर्थात् सब कुछ होते हुए भी कुछ न करो। किसी न किसी बहाने से टालते रहो। अगर ऐसा न होता तो कबीर साहिब को, ‘‘काल करे सो आज कर’’ दोहा कह कर, प्रलय से डराने की जरूरत न पड़ती? लेकिन हम भारतीय तो पहले ही उत्पत्ति और विकास के साथ विध्वंस में विश्वास करते आए हैं। जब नाश होना ही है, तो कुछ करना ही क्यों? अब खुद सोचो अगर हमारे यहां यह ‘करो न’ वायरस न होता तो प्रेमचंद को कफन के लिए घीसू और माधो कहां से मिलते?’’ जब मैंने उन्हें दाद दी तो वह बोले, ‘‘हमारे देश में लगभग हर आदमी किसी ड्रग एडिक्ट की तरह इस दाद से संक्रमित है और आने वाली पीढि़यों को सदियों से इसे हस्तांतरित करता आ रहा है। इसीलिए आम भारतीय सरकारी सेवा को विशेष अहमियत देता आया है। भले ही आजकल हमारी सरकार स्वरोजगार के लिए लोगों को प्रेरित करती रही है, लेकिन लोग हैं कि पकौड़े तलने के लिए तैयार ही नहीं होते। वैसे यह वायरस दो प्रकार होता है। पहला, ‘‘करो ना’’ और दूसरा ‘‘कुछ, करो ना’’। पहली किस्म आम लोगों और जनता को चिपकाई जाती है और उसके कामों को न करने के बहानों की पोथी पहले ही तैयार रहती है। दूसरी किस्म को खास लोगों के कामों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। किसी मंत्री, नेता, बड़े अफसर, बाहुबली और धनी के कामों को सरकारी कर्मी कभी मना नहीं करते क्योंकि उन्हें भृगु लात का भय बना रहता है। वैसे सामर्थ्यवान के धनरूपी मरहम से भी ‘‘करो ना’’ वायरस की किस्म बदल जाती है और काम हो जाते हैं।’’ उनके समक्ष नतमस्तक होने के बाद अब मैं अपने दफ्तर में आने वाले आम लोगों और जनता के होने वाले कामों को भी ‘‘न करो’’ वाइरस की श्रेणी में लाने के लिए विभिन्न बहाने गढ़ने पर विचार करना आरंभ कर चुका था।  


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