गिरिराज किशोर को आदरांजलि

By: Feb 16th, 2020 12:05 am

स्मृति शेष

अमरीक सिंह मो.-7986236409

गिरिराज किशोर

अपने वृहद उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ के जरिए महात्मा गांधी के महात्मा होने से पहले की जीवन प्रक्रिया के अनगिनत अनछुए पहलू विस्तार से व्याख्यायित करने वाले गिरिराज किशोर उस वक्त विदा हुए हैं जब एक विचारधारा विशेष से वाबस्ता लोगों की पूरी एक जमात देश के एक से दूसरे कोने तक रोज गांधी को मार रही है। नाथूराम गोडसे के हाथों कत्ल हुए गांधी अब फिर बार-बार कत्ल किए जा रहे हैं और जीवनकाल की संध्या में गिरिराज किशोर इस सबसे गहरे तक विचलित थे और अपने गहन शोध के आधार पर गांधी पर वैचारिक लेखन की शृंखला को नए संदर्भों के साथ नए आकार दे रहे थे। उनके फिलहाल तक 15 उपन्यास प्रकाशित हैं। सब अपनी-अपनी खसूसियतों के चलते चर्चा में रहे। सबको मिली कम-ज्यादा मान्यता के आधार पर उनका विशिष्ट पाठक वर्ग बना। लेकिन उन्हें सर्वाधिक मकबूलियत हासिल हुई गांधी जी के दक्षिण अफ्रीकी जीवन पर केंद्रित उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ से।
वह सदैव 900 पृष्ठों के इस वृहद तथा शोधपरक महत्त्वपूर्ण उपन्यास के लिए विशेष तौर से रेखांकित किए जाएंगे। हालांकि गिरिराज किशोर गांधीवादी नहीं थे और गांधीवाद को लेकर उनके कुछ प्रकट संशय थे। गिरिराज किशोर के निर्मम आलोचकों ने भी बाकायदा स्वीकार किया है कि ‘पहला गिरमिटिया’ मोहनदास करमचंद गांधी की महात्मा गांधी बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए एक अपरिहार्य कृति है। इसे लिखने के लिए गिरिराज जी ने आठ-नौ वर्ष अथक परिश्रम किया।  उपन्यास का केंद्रीय बिंदु गांधी जी का अफ्रीकी-युग है। इसके लिए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की कई यात्राएं कीं, हजारों किताबों से गुजर कर लंबा शोध किया और उन लगभग तमाम जगहों को अपनी गहरी रचनात्मक दृष्टि से स्पर्श किया जहां-जहां गांधी दक्षिण अफ्रीका में विचरे। उस जमीन पर जाकर तमाम घटनाक्रम को इतिहास से निकालकर वर्तमान में ले जाना असाधारण कार्य है। फिर नौ सौ छपे पृष्ठों का लंबा उपन्यास बतौर सौगात हिंदी साहित्य समाज को दिया। अपने कथा-कौशल की नई गहराई और ऊंचाई को विलक्षणता के साथ सिद्ध किया। इतनी विस्तृत रचना को बगैर ऊब के पढ़वा ले जाना और शुरू से अंत तक पठनीयता को बरकरार रखना बेहद मुश्किल है, लेकिन ‘पहला गिरमिटिया’ के हाथों-हाथ लिए जाने तथा एक के बाद एक उसके कई संस्करण आना इसकी पुख्ता मिसाल है कि उनमें निरंतर विकसित होती अद्भुत प्रतिभा थी, जिन्होंने घोर निंदकों-आलोचकों को भी उनका कायल बनाया। अपने समय के अनूठे पत्रकार-संपादक प्रभाष जोशी गांधी जी के प्रति गहरे आस्थावान थे। गांधी जी के महीन अध्येता भी। ‘पहला गिरमिटिया’ जब प्रकाशित हुआ तो प्रभाष जी की पत्रकारीय सक्रियता उन्हें कहां इतना समय देती होगी कि वह 900 पेज के इस विशुद्ध साहित्यिक उपन्यास को पढ़ें। पर साहित्य के प्रति गहरे अनुराग और गांधी जी के प्रति समर्पण ने उन्हें ‘पहला गिरमिटिया’ पढ़ाया। टुकड़ों में नहीं, निरंतरता में।
तब प्रभाष जोशी ने टिप्पणी लिखी : ‘संक्रमण में पढऩे योग्य महाभारत से श्रेष्ठ कोई महाकाव्य नहीं है। और कहूं कि भीतरी और बाहरी संक्रमण को समझने में ‘पहला गिरमिटिया’ से ज्यादा प्रेरक कोई उपन्यास नहीं है। मोहनदास करमचंद गांधी के कुली बैरिस्टर से महात्मा गांधी बनने की प्रक्रिया और विलक्षण कहानी जैसी ‘पहला गिरमिटिया’ में से बनकर निकली है, वैसी मैंने पहले कहीं और नहीं पढ़ी।’ एक शीर्ष गांधीवादी पत्रकार-चिंतक और सामाजिक बुद्धिजीवी की ऐसी टिप्पणी इस उपन्यास की सार्थकता पर बहुत कुछ कह जाती है और लिखने वाले के श्रम का बेहद गरिमामयी सत्कार-सम्मान करती है।  गिरिराज किशोर के समकालीन श्रीलाल शुक्ल ने ‘पहला गिरमिटिया’ पर पहले-पहल प्रतिक्रिया दी थी कि यह उपन्यास अंग्रेजी में लिखा जाता तो गिरिराज को अकूत रॉयल्टी मिलती। तब इसे श्रीलाल जी का कटाक्ष कहा गया था। लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ कि इसके मायने नकारात्मक नहीं, सकारात्मक थे। इसी तरह हर चर्चित-बहुचर्चित रचना की निर्मम चीर-फाड़ करने वाले और गिरिराज किशोर के अधिकांश साहित्य से (निजी दोस्ती और आत्मीयता के बावजूद) असहमति जताते रहने वाले राजेंद्र यादव ने पहली बार उनकी इतनी खुलकर प्रशंसा की तथा ‘पहला गिरमिटिया’ को उनका महत्त्वाकांक्षी तथा बड़ा उपन्यास करार दिया। प्रभाष जोशी, श्रीलाल शुक्ल और राजेंद्र यादव सरीखी बेशुमार उल्लेखनीय और अमूल्य प्रतिक्रियाएं ‘पहला गिरमिटिया’ के लिए गिरिराज किशोर को मुतवातर मिलती रहीं। उन्होंने इस वृहद उपन्यास की पठनीयता और प्रामाणिकता बनाए रखने की यथासामथ्र्य सफल कोशिश की। ‘पहला गिरमिटिया’ लिखने के लिए गिरिराज किशोर ने दक्षिण अफ्रीका, लंदन और मॉरीशस की कई यात्राएं कीं। विस्तृत शोध, लंबी यात्राओं और निरंतर कलमघिसाई के बाद इसकी पांडुलिपि को अंतिम रूप गिरिराज किशोर ने 30 मई 1998 को कानपुर में दिया।
पांडुलिपि में आवश्यक संशोधन-सुधार के लिए उन्होंने इतिहास की गहरी समझ रखने वाले प्रख्यात लेखक प्रियंवद, राजेंद्र यादव, नरेश सक्सेना और शैलेश मटियानी की सहायता ली। ‘पहला गिरमिटिया’ का प्रथम संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। बाद में लेखकों और भारतीय ज्ञानपीठ के बीच हुए वैचारिक मतभेद के चलते गिरिराज किशोर ने यह उपन्यास अपने सर्वाधिकार का इस्तेमाल करते हुए वहां से वापस ले लिया। इसमें उन्हें काफी मुश्किलें आईं। उन्हें मनाने और अंतत: सताने की कवायद की गई, लेकिन लगभग लड़ाई और जि़द के साथ वह डटे रहे और उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ से वापस ले ही लिया। तब से इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं और ताजा संस्करण राजपाल एंड संज से है। गिरिराज किशोर के अनुसार महात्मा गांधी के जीवन के तीन पक्ष हैं..एक मोहनिया पक्ष, दूसरा मोहनदास पक्ष और तीसरा महात्मा गांधी पक्ष। उन्होंने मोहनदास पक्ष चुना, जिसके बाद मोहनदास करमचंद गांधी भारत आकर महात्मा गांधी बने। ‘पहला गिरमिटिया’ के बाद गिरिराज किशोर गांधी जी की जीवनसंगिनी कस्तूरबा गांधी की ओर मुड़े जो महज गांधी जी की पत्नी ही नहीं, बल्कि देश की आजादी के लिए लडऩे वाली एक प्रतिबद्ध महिला भी थीं।  इसे लिखने के लिए भी गहन शोध और यात्राएं कीं। वह उन बेशुमार लोगों से मिले जिनके पास कस्तूरबा गांधी से संबंधित कोई भी सूचना मिल सकती थी। बहरहाल गांधी के ‘गांधी’ बनने और कस्तूरबा के ‘बा’ बनने की ऐतिहासिक कथा इतनी यथार्थपरकता के साथ पहले कभी नहीं लिखी गई। उनके इन दोनों उपन्यासों की प्रासंगिकता सदा रहेगी।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App