चूना नहीं लगाऊंगा

By: Feb 21st, 2020 12:05 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

प्राचीन काल में कलाओं की संख्या अत्यंत सीमित थी। यहां तक कि उनका अपना शास्त्र तथा व्याकरण था तथा वे सामाजिक अभ्युत्थान में महत्ती भूमिका भी अदा करती थीं। समय की बलिहारी, आज कलाएं असीमित हो गई हैं तथा वे बिना किसी शास्त्र व विधान के धड़ल्ले से चलने लगी हैं। ये ऐसी कलाएं हैं, जो अभ्यास से तथा मानसिक मंथन से प्राप्त होती हैं। सौभाग्य मेरा कि इन हजारों आधुनिक कलाओं में से ‘चूना लगाने की कला’ में मैंने महारत हासिल की है। पहले-पहले पिताजी ने पान की दुकान खुलवाई तो मैं उनका आशय नहीं समझ पाया था, परंतु धीरे-धीरे समझ में आ गया कि पिताजी मुझे किस कला में दक्ष करना चाह रहे हैं। पान में जिन दिनों मैं चूना लगा रहा था मुझे पता नहीं था कि जो हाथ आज लोगों का मुंह तथा गला काट रहे हैं, कल उनकी जेब तक भी पहुंच जाएंगे। उन दिनों चूना हर चीज की लाइलाज दवा था। जल्दी ही मुझे पान की दुकान को बंद करना पड़ा। पिताजी ने कहा-‘बालक अब तुम्हारा कोर्स पूरा हुआ। देश की सड़कें तुम्हारे लिए खाली पड़ी हैं निकल पड़ो और लगाओ चूना। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’ मैंने पिताजी के चरण छुए और पहुंचा सीधा अपने एक रिश्तेदार के यहां। रिश्तेदार को पता नहीं था कि मैं नया-नया डिप्लोमा करके आ रहा हूं सो वे आ गए मेरी बातों में। मैंने प्रस्ताव किया था कि पिताजी ने दो सौ रुपए अविलंब मंगाए हैं, उन्हें वहां बाहर जाना है। वे लपककर निकाल लाए और मुझे सौंप दिए। पिताजी को लाकर सौंपे तो वे गदगद हो गए और मेरे सिर पर हाथ फेरकर बोले-‘कुलदीपक मुझे तुमसे यही आशा थी। जो काम मैं नहीं कर सका-वह तुमने कर दिखाया। लगता है तुम एक महान चूना कलाकार बनोगे। मेरे सपने लगता है अब साकार होने वाले हैं।’ मैंने कहा-‘पिताजी, आपका सहयोग मिला तो मैं चूना लगाने में किसी से नहीं हिचकूंगा।’ ‘सहयोग, मैंने कब इनकार किया ?’ ‘वह देखिए, जिनसे दो सौ मारकर लाया था, वह खुद आ रहे हैं।’ ‘घबराओ मत बेटा, मैं इनकार कर दूंगा। तुम्हें गालियां दूंगा, तुम्हें कपूत कहूंगा, परंतु तुम तो सपूत ही बने रहना।’ पिताजी ने कहा। वही हुआ, पिताजी रिश्तेदार महोदय के सामने मुझे डांट-फटकार लगाते रहे, मैं माथा नीचा किए सुनता रहा। रिश्तेदार महाशय बोले-‘छोडि़ए, बच्चा है, समझ जाएगा रुपए देने की जल्दी नहीं है, धीरे-धीरे लौटा देना।’ रुपए लौटाने की बात पर पिताजी बिदके और बोले-‘रुपए, मैं क्यों दूं रुपए? आगे ख्याल रखना। यह तो रोज-रोज अब किसी न किसी से ऐसा किया करेगा, मैंने कोई ठेका लिया है।’ रिश्तेदार मन मसोस कर रह गए। चले गए, पिताजी खीसें, निपोरते हुए आए और बोले-‘जाओ बेटा चूना लगाने की व्यावहारिक परीक्षा के लिए जाओ।’


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