दिल्ली चुनाव 2020 के नतीजों का मतलब

By: Feb 13th, 2020 12:05 am

डा. राकेश कपूर

लेखक, धर्मशाला से हैं

2020 के विधानसभा चुनावों में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को 70 में से 62 सीटों के प्रचंड बहुमत से तीसरी बार दिल्ली की गद्दी दिल्ली के 2 करोड़  उन मतदाताओं ने सौंप दी जिन्होंने 6 माह पूर्व ही दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें भारी बहुमत के अंतर से भाजपा के उम्मीदवारों को देकर 300 के बहुमत से मोदी सरकार को दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार होने का ऐतिहासिक सम्मान दिया था…

2020 के विधानसभा चुनावों में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को 70 में से 62 सीटों के प्रचंड बहुमत से तीसरी बार दिल्ली की गद्दी दिल्ली के 2 करोड़  उन मतदाताओं ने सौंप दी जिन्होंने 6 माह पूर्व ही दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें भारी बहुमत के अंतर से भाजपा के उम्मीदवारों को देकर 300 के बहुमत से मोदी सरकार को दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार होने का ऐतिहासिक सम्मान दिया। 2015 में 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी की 2020 की प्रचंड जीत कोई शिगूफा नहीं थी यह इस चुनाव का एक बड़ा संदेश है। 2020 का दिल्ली चुनाव देश की चुनावी राजनीति में न केवल एक नया मोड़ साबित होगा अपितु इसने देश की राजनीति में आम आधारित, काम आधारित मुद्दों की राजनीतिक व्यवस्था ही अन्तोत्गत्वा विजयी होगी जैसा नया संदेश देश को दिया है और आम आदमी के लिए सड़क, बिजली, पानी, सुलभ और सस्ता स्वास्थ्य, गुणवत्तापरक जीवन यापन ही उस की मूल आवश्यकता है।

2020 का दिल्ली विधान सभा चुनाव कई मायनो में न सिर्फ  ऐतिहासिक है अपितु इस के दूरगामी परिणाम सामने आएंगे, इसलिए इस को राष्ट्रीय राजनीतिक परिपेक्ष में अवलोकित किए जाने की जरूरत है। दिल्ली के चुनावी नतीजों को जो आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के लिए एक बड़ा जनमत संदेश ले कर आए हैं, साथ ही एक विश्वास, एक आस, ‘परफॉर्म और पेरिश’ यानी या तो काम कर के परिणाम दिखाओ या फिर सत्ता से बाहर हो जाओ की नई राजनीतिक सोच की आधारशिला के रूप में देखे जाने की भी जरूरत है। दिल्ली के चुनावों को नतीजों के झरोखों से देखने के साथ-साथ चुनाव प्रचार, मुद्दों और प्रचार मुहीम के तेवर, तौर-तरीकों की कसौटी पर भी देखे जाने की जरूरत है। चूंकि केंद्र में भारी बहुमत से सत्ता सीन भाजपा ने 2019 में ही दिल्ली पुनः फतेह की थी मगर 2018 के बाद के 8 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा के हाथ से सरकारें चली गईं। 2020 के चुनावों में विशेष रूप से महराष्ट्र और झारखंड में सत्ता गवाना भाजपा को बहुत भारी पड़ने लगा था और 2018 तक चुनावी समर की अजय जो कि मोदी-शाह को भी परास्त किया जा सकता है यह राजनीतिक क्षत्रपों को विदित हो गया, इसलिए भाजपा के लिए यह चुनाव जहां देश के दिल दिल्ली में 21 सालों के राजनीतिक सूखे को दूर कर सत्ता वापसी कर उस दावे को झुठलाने का अवसर था, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार के जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन, 370 की समाप्ति से उपजी परिस्थिति और देश में विद्रोह, राजनीतिक वैमनस्य, अविश्वास, राष्ट्रव्यापी आंदोलन, जेएनयू, जामिया के छात्र जनांदोलन की चिंगारी, शाहीन बाग से देश भर में इस कदर फैल गई कि दिल्ली के चुनावों में इस की गूंज सुनाई देने लगी और भाजपा पर जो देश को धर्म के आधार पर बांटने के आरोप लगने लगे थे उस कालिख से भी मुक्ति पाना उस के लिए जरूरी था।

केवल इतना ही नहीं 2019 की जीत से मोदी है तो मुमकिन है के नारे के बाद से नोटबंदी, महंगाई, खासकर प्याज के दामों ने जनता को रुलाए आंसुओं एबेरोगारी, आर्थिक मंदी से गई 40 लाख नौकरियों को विपक्ष का खोखला प्रचार सिद्ध करने के लिए भाजपा को दिल्ली के चुनाव में जीत न सिर्फ जरूरी थी  अपितु उस की मजबूरी थी, इसी नीति निर्णय और निश्चय के साथ भाजपा चुनावी समर में दल-बल से उतरेगी यह सर्व विदित था। मगर सत्ता की चाह और 48 के पार की राह में चूक कहां, कैसे और क्यों हुई यह विश्लेषण भाजपा और राष्ट्रीय चुनावी राजनीति के परिपेक्ष में करना भी जरूरी है। अपनी राजनीतिक शतरंज की बिसात पर किरण बेदी को चेहरा बना कर 2015 के चुनावों में मात खाई भाजपा ने इस बार बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के 2020 के  समर में कूदने को प्राथमिकता दी। चूंकि भाजपा को यह डर सता रहा था कि 2015 की भीतरघात की पुनरावृति हो सकती है वही, पंजाबी, पूर्वांचली, बनिया, जाट और प्रवासी सभी समुदायों को साधने की जुगत के लिए कोई चेहरा देना ठीक नहीं होगा मगर यही शायद चूक नंबर एक साबित हुई। यद्यपि संगठन, संसाधन, जनप्रभावी वक्ताओं की बड़ी फौज प्रधानमंत्री मोदी सरीखे लोकप्रिय नेता भीड़ जुटाने में सक्षम बॉलीवुड अभिनेत्रियों से ले कर 300 सांसदों, 6 मुख्यमंत्रियों, इतने ही पूर्व मुख्यमंत्रियों, 150 विधायकों, संघ परिवार के सभी महत्त्वपूर्ण घटकों के बडे़ नेताओं के अतिरिक्त उत्तर भारत के राज्यों के 10,000 वरिष्ठ कार्यकर्ताओं, उत्तर पूर्व, असम, बंगाल के राज्य स्तरीय नेताओं के अतरिक्त राजग के घटकों से नितीश कुमार, सुखबीर बादल, राम बिलास पासवान को प्रचार में सिख, पूर्वांचली, बिहारी, आदि वोट बैंकों को अपने पाले में करने की नीति से झोंकने के बावजूद अकेले केजरीवाल से लोहा लेने के लिए अनुमानित 4000 करोड़ चुनाव व्यय की खबरों के बावजूद गृह मंत्री अमित शाह और नव निर्वाचित अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्ढा को घर-घर वोट मांगने जाने की नौबत, प्रधानमंत्री नरेंद्रर मोदी की विधानसभा स्तरीय रैलियां करने के बावजूद मात्र 8 सीटों पर सिमट गई। भाजपा के नेता हालांकि ‘हमारा मत 9 प्रतिशत बढ़ गया और सीटें 3 से 8 हो गई’ से दिल को दिलासा दे रहे हैं मगर 30 प्रतिशत 2015 के मुकाबिल 39 प्रतिशत 2020 बताने वाले यह भूल जाते हैं की वास्तव में मात्र 6 माह में  2019 लोकसभा में 56 प्रतिशत से 17 प्रतिशत कम हो कर यह 39 प्रतिशत रह गया है।


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