दूसरे टाइप के लेखक

By: Feb 14th, 2020 12:05 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

वे मेरे जैसे लेखक नहीं थे, वे दूसरे टाइप के लेखक थे। मेरा काम लिखना और छपवाना था, उनका इससे दूर-दूर तक का नाता न था। दरअसल वे लेखक टाइप बुद्धिजीवी थे, जो गोष्ठियों में गहन विमर्श उनकी अध्यक्षता और कहीं व्याख्यान देते पाए जाते थे। मुझसे यह सब नहीं हो पाता था। कहीं कोई विचार मंत्रणा होनी होती तो उन्हें बुलाया जाता। कला केंद्रों में भी उन्हीं की दरकार थी। लिखना और फिर उसे छपवाना वे इसे हल्की बात मानते थे। उनके कहे आप्त वचन छपते थे समाचार-पत्रों में। उनका कोई सम्मेलन होता और उनकी सूची छपती तो मैं उन नामों को पहचान नहीं पाता। यह दिवालियापन मेरा था, इसमें उनकी तनिक भी गलती नहीं थी। सुना था उन्होंने कभी लिखा था, और इतना प्रभावी लिखा थ कि उनका नाम हो गया और वे देश के बौद्धिक वर्ग की शिरकत करने में आगे आ गए थे। मैंने लाख कोशिश की कि मैं उन जैसा दूसरे टाइप का लेखक बन जाऊं, लेकिन एक तो लिखने की आदत नहीं छूट रही थी, दूसरा लोग उन जैसी पहचान मुझे दे भी नहीं पा रहे थे। सत्य तो यही है कि मैं दूसरे टाइप का लेखक बनना चाहता था, परंतु शायद यह मेरे भाग्य में नहीं है। बात-बात में हंसना, सहज रहना, मजाक बाजी करना, ये मेरे कुटेव थे-जो मुझे दूसरे टाइप का लेखक नहीं बनने दे रहे थे। उनकी तरह रहना मेरे वश की बात नहीं थी। वे जो बोलते थे, मेरी समझ से परे था। सदैव गंभीर मुद्रा में आसमान को ताकना, चेहरे पर तनिक हास्य क्या आ जाए और नया तुला बोलकर सबको हतप्रभ कर देना, उनकी अपनी फितरत और अंदाज था। खूब लिखने-छपने के बाद भी वे मुझे नहीं जानते थे। पहली बात तो उन तक पहुंचना आसान नहीं था, फिर भी कभी कोई उनसे मिलवाता तो वे चालाकी से मुझे नजरअंदाज कर जाते और मैं मन मसोसकर रह जाता। मेरी अपनी उत्कष्ठा थी कि वे मुझे जाने और मैं उन्हें जानूं, लेकिन ऐसा कभी संभव ही नहीं हो पाया, क्योंकि वे दूसरे टाइप के लेखक थे, मुझे इतना तो पता चल गया था-उनमें से कुछ अंग्रेजी की दुनिया के थे, कुछ विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर थे, कुछ फिल्मी दुनिया के थे और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के पहुंचे हुए और घुटे हुए थे। कुछेक बड़े पदों पर आसीन थे तो कुछेक बड़े पदों से सेवानिवृत्त होकर इस दूसरे टाइप के लेखक बन गए थे। वे संगठनों से जुड़े हुए थे, उनमें पदाधिकारी थे और उनका अपना पंथ था। दूसरे टाइप के लेखकों का रहन-सहन और पहन-पहनावा यानी उनकी जीवन शैली भी मुझसे काफी भिन्न थी। वे खाते भी थे, पीते थे और आचरण से भी शुद्ध नहीं होने के बावजूद अपना कदम और कद अहम बनाए हुए थे। कपड़े भी एकदम पाश्चात्य सभ्यता के, मुड़े-तुड़े और महंगे। इनके साथ इन्हीं की तरह की कुछ महिला लेखिकाएं भी थीं। ये सब महानगरों से ताल्लुक रखते थे। मेरे गांव के घासियारे नहीं थे। चेहरे पर शालीनता और कुलीनता दोनों एक साथ देखी जा सकती थी। बस मैं इसी टाइप का बनना चाहता था, लेकिन अफसोस असीम प्रयासों के बावजूद मैं अपना मूल ‘टाइप’ नहीं बदल सका। दूसरे टाइप के लेखक मुझे लुभाते थे, खींचते थे और आकर्षक लगते थे। दूसरे टाइप के लेखक कितने अलग होते हैं, अकसर मैं सोचा करता हूं। 


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