पीएम के ही खिलाफ मंत्री

By: Feb 14th, 2020 12:05 am

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की जुबान विवादास्पद बयान देने से बाज नहीं आती। अभी तो दिल्ली का चुनाव हारे दो ही दिन हुए हैं, लेकिन जहरीले बोल नहीं थमे हैं। अब गिरिराज ने दारुल उलूम देवबंद को ‘आतंकियों की गंगोत्री’ कहा है। उनका यह भी आरोप है कि सभी बड़े-बड़े आतंकवादी, हाफिज सईद समेत, देवबंद की ही पैदाइश हैं। हाफिज खूंखार और प्रतिबंधित आतंकी संगठनों- लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा का संस्थापक है। पहली घोर आपत्ति तो यह है कि गिरिराज ने आतंकवाद की तुलना गंगोत्री से की है। गंगा मैया करोड़ों लोगों की आस्था की धुरी है, लिहाजा इस बयान के जरिए उसे आहत किया गया है। दरअसल सवाल यह है कि अभी यह बयान क्यों दिया गया? इसका प्रसंग सिर्फ  इतना ही था कि गिरिराज देवबंद के प्रवास पर थे। दो जिज्ञासाएं हैं। इसे भाजपा की सोची-समझी रणनीति माना जाए अथवा प्रधानमंत्री मोदी की नसीहत और फटकार के बावजूद मंत्री, सांसद और पार्टी नेता ऐसे ही विवादित बयान देते रहे हैं! तो ऐसे मंत्रियों को प्रधानमंत्री अपनी कैबिनेट से बर्खास्त क्यों नहीं करते? या कोई और भीतरी विवशता है, जिसके सामने प्रधानमंत्री मोदी भी लाचार हैं? गौरतलब यह भी है कि मई, 2019 में लोकसभा चुनाव की शानदार जीत के बाद जब नरेंद्र मोदी को भाजपा और एनडीए संसदीय दल का नेता चुना गया था, तब संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा था कि पार्टी में कुछ नमूने ऐसे हैं, जो विवादास्पद बयान देते रहते हैं, लेकिन उसके नतीजे हमें झेलने पड़ते हैं। हालांकि प्रधानमंत्री ने किसी का नाम नहीं लिया था, लेकिन उन्होंने और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गिरिराज और साध्वी निरंजन ज्योति को विवादित बोलों के लिए डांटा था और आगाह भी किया था। दोनों ही मोदी कैबिनेट का हिस्सा हैं। गिरिराज ने यह भी कह दिया है कि ये लोग (मुसलमान) सीएए के नहीं, भारत के खिलाफ  हैं। यह एक किस्म का खिलाफत आंदोलन है। वे भारत को इस्लामी देश बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ये सभी अनर्गल आरोप हैं, क्योंकि देश में न तो ऐसे हालात हैं और न ही ऐसा स्वरूप बदलना संभव है। दरअसल दिल्ली चुनाव में भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा नाकाम रहा है, करारी हार झेलनी पड़ी है, फिर भी गिरिराज, कैलाश विजयवर्गीय, प्रवेश वर्मा और कई नेता हिंदू-मुसलमान के एजेंडे पर ही अटके रहना चाहते हैं। इसी साल अक्तूबर-नवंबर में बिहार सरीखे संवेदनशील राज्य में चुनाव हैं और 2021 में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव होने हैं। बिहार और असम में भाजपा सरकार में है। क्या मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाते हुए और सांप्रदायिक एजेंडे के आधार पर ही भाजपा चुनाव लड़ना चाहती है? एक और बेहद महत्त्वपूर्ण और संवैधानिक सवाल है कि क्या केंद्रीय मंत्री अपने ही प्रधानमंत्री के खिलाफ हैं? क्योंकि प्रधानमंत्री का फॉर्मूला विकास केंद्रित रहा है, जिस पर 2014 से ही सबसे ज्यादा फोकस रहा है। हालांकि उन्होंने विकास से हटकर भी कभी-कभार आपत्तिजनक टिप्पणियां की हैं, लेकिन उनके मंत्री नसीहत देने के बावजूद हिंदोस्तान, पाकिस्तान, गद्दार, गोली कहने और अब दारुल उलूम को आतंकियों का अड्डा करार देने पर आमादा हैं। सवाल यह भी है कि क्या मंत्री, नेता नेतृत्व के अघोषित संकेत के बिना ऐसे विवादास्पद बयान दे सकते हैं? हमें लगता है कि गिरिराज इसी काम के लिए कैबिनेट में हैं। ऐसे संवैधानिक विरोधाभासों के मायने क्या हैं? गिरिराज कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। केंद्रीय मंत्री हैं और उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की ही सरकार है। यदि देवबंद के खिलाफ  ऐसे कोई साक्ष्य हैं, पुलिस की जांच-सूचियां हैं, तो दारुल उलूम पर जांच बिठाइए, उस पर सुरक्षा बलों की पहरेदारी तैनात कीजिए और अंततः उसे बंद कराइए।  आखिर देश में सरेआम आतंकवाद का अड्डा क्यों चलते रहना चाहिए? इसके अलावा दारुल उलूम की स्थापना 31 मई,1866 को की गई थी। यह एक अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक यूनिवर्सिटी है, जहां करीब 5000 छात्र पढ़ते हैं। सुन्नी देवबंदी इस्लामिक आंदोलन की शुरुआत यहीं से हुई। आजादी के आंदोलन में भी इसने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बुनियादी तौर पर यह एक सुधारवादी संस्थान है। चूंकि इसका जुड़ाव मुसलमानों से है, लिहाजा एक मंत्री इसे ‘आतंकियों का केंद्र’ करार दे, यह उचित नहीं है। दरअसल जो भाजपाई मंत्री और नेता इस एजेंडे में लिप्त हैं, वे प्रधानमंत्री मोदी के विकास कार्यक्रमों और राजनीति को भटका रहे हैं। वे देश की मौजूदा समस्याओं के प्रति फिक्रमंद नहीं हैं।


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