पीपीपी मोड पर दें धर्मशाला अस्पताल

By: Feb 8th, 2020 12:05 am

हरि मित्र भागी

लेखक, धर्मशाला से हैं

तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए बेहतर है कि इस अस्पताल को पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के अंतर्गत जिसमें केंद्रीय बजट हो, अधीन लाया जाए ताकि यह अस्पताल सुचारू रूप से चल सके। यह व्यवस्था सुधरेगी तो टांडा की व्यवस्था भी सुधरेगी…

हिमाचल प्रदेश के जिला मुख्यालय धर्मशाला के क्षेत्रीय अस्पताल की जो दयनीय व्यवस्था बनी हुई है, उस पर गालिब का शेर याद आता है कि मर्ज बढ़ता गया ज्यूं-ज्यूं दवा की। यही वही अस्पताल है जो संयुक्त पंजाब के समय से ही एक प्रतिष्ठित संस्थान रहा है। इसका गौरवशाली अध्याय रहा है। उस समय लाहुल-स्पीति, कुल्लू, हमीरपुर इसी जिले का भाग हुआ करते थे। इस अस्पताल की स्वास्थ्य सेवाओं के तार मैदानी क्षेत्रों से दूरदराज के दुर्गम क्षेत्रों से जुड़े हुए थे। अधीनस्थ सभी सेवाओं की यही अस्पताल आपूर्ति किया करता था। बड़े कम केस बाहर भेजे जाते थे। यहां क्षय रोग, विद्यार्थियों के लिए अलग विभाग, पुलिस का अस्पताल सब चारों विंग कार्य करते थे। फिर मेडिकल कालेज टांडा की स्थापना हुई। इस अस्पताल को मेडिकल कालेज का अस्पताल बनाया गया। जब टांडा का अपना भवन बन कर तैयार हो गया तो जिला अस्पताल, विद्यार्थी, पुलिस, क्षय रोग सभी टांडा शिफ्ट हो गए और नमाज बख्शवाने रोजे गले पड़ गए। इस अस्पताल में सन्नाटा छा गया, सुनसान हो गया। फिर जन-आंदोलन हुआ व उसके बाद यह अस्पताल आईएसओ अस्पताल भी रहा, तब लोगों को कुछ राहत महसूस हुई। एमआर इत्यादि की सभी सुविधाएं रहीं। अब यह एक क्षेत्रीय अस्पताल है। अब सामान्य रोग के लिए भी टांडा रैफर कर दिया जाता है। अगस्त माह में एक महिला की टांग टूट गई, उसे टांडा रैफर कर दिया गया। उस दिन अस्थि रोग विशेषज्ञ नहीं था व टांडा में भीड़ इतनी कि चंबा तक के लोग आए हुए थे। हड्डी जोड़ने के लिए प्लास्टर चढ़ाने वाले टेक्नीशियन महोदय का व्यवहार ऐसा था कि वह ट्रेनी डाक्टरों की सहायता भी न ले, न अभिभावक की सहायता करें। वह व्यवहार भी मरीजों की सहानुभूति के अनुकूल नहीं था। एक महिला को सांप ने काट लिया था, उसे भी टांडा रैफर कर दिया गया। तीन फरवरी को 10-11 के करीब एक व्यक्ति के पैर में चोट आई व वह अस्पताल आता है तो वहां अस्थि रोग विशेषज्ञ नहीं व एक्स-रे मशीन खराब। तब वह सामान्य डाक्टर के पास जाते हैं तो उनका रवैया भी सहयोग पूर्ण नहीं था। फिर निजी अस्पताल से एक्स-रे करवाया व रिपोर्ट तसल्ली बख्श थी। मरीज तो ठीक था परंतु अस्पताल बीमार था। कई सरकारें आई व यह अस्पताल गिरगिट की तरह रंग बदलता रहा। इस बीमार अस्पताल की व्यवस्था में सुधार के लिए सरकारें असफल रही हैं। परंतु इस अस्पताल का इलाज नहीं हो पाया या इसके प्रति सरकार को गंभीरता पूर्ण कोई ठोस निर्णय की आवश्यकता है। क्योंकि अव्यवस्था सरकार की असफलता का प्रमाण है। इन तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए बेहतर है कि इस अस्पताल को पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के अंतर्गत जिसमें केंद्रीय बजट हो अधीन लाया जाए ताकि यह अस्पताल सुचारू रूप से चल सके। यह व्यवस्था सुधरेगी तो टांडा की व्यवस्था भी सुधरेगी। यदि टांडा का बोझ कम होगा तो उसकी व्यवस्था भी सुधरेगी। ऐसी व्यवस्था हो कि पता चले कि प्रदेश की दूसरी राजधानी में मंडलीय कार्यालय स्मार्ट सिटी का अस्पताल है। न यहां अस्थि रोग विशेषज्ञ, मेडिकल व अन्य कोई डाक्टर नहीं है। सर्जरी की यह व्यवस्था उपकरणों, टेक्नीशयन सभी व्यवस्था होनी चाहिए। कई ऐसी बीमारियों जिनकी एक दम स्थिति संभालने पड़ती है मरीज को एक दम इलाज की आवश्यकता होती है उसकी जिंदगी मौत का प्रश्न होता है। इस अस्पताल को संभालने की आवश्यकता है। अब तो इस अस्पताल की वह  व्यवस्था है जो कि कवि की कविता का शीर्षक है ‘जल है तो नल नहीं, यदि व्यवस्था नहीं तो इतने बड़े भवन का क्या लाभ।  


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