पुतला जला, रावण फिर भी जिंदा

By: Feb 23rd, 2020 12:06 am

अश्वनी कुमार

मो.-9418085095

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि और संभावना-10

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि एवं संभावना सीरीज, जिसके अतिथि संपादक अशोक गौतम हैं, के तहत प्राप्त हुई इस व्यंग्य रचना को हम सीरीज की 10वीं और अंतिम किस्त के रूप में पाठकों के लिए छाप रहे हैं। भविष्य में कई अन्य व्यंग्य रचनाओं को हम ‘प्रतिबिंब’ में स्थान देंगे। व्यंग्य पर आधारित अपनी सीरीज को हम यहीं विराम दे रहे हैं:

लोग-बाग खुश हैं। हों भी क्यों न। दिन ही ऐसा है। विजयदशमी है आज भाईजी! मरे-जिंदा रावणों सबके लिए। आदमी के भेस में सजे-धजे मैदान में रंग-बिरंगे परिधान पहने सोसाइटी के सब रावणों, मेघनादों, कुंभकरणों की चहल-पहल देखने लायक है। लगता नहीं, हम गंदी-मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। छद्म रावण एक बार फिर जलने को मूंछों पर ताव दिए तैयार है। सांझ ढलते ही बंधु-बांधवों सहित उसे असली रावणों के सदस्यों द्वारा तथाकथित रूप से जलाया जाना है। मैं भी पता नहीं क्यों अपनी मूंछों पर ताव देता घूमता-फिरता तीनों तथाकथित पुतलों के पास जा खड़ा हुआ हूं। गर्दन टेढ़ी हो गई है मेरी उनके चेहरों को देखते-देखते। ज्यों ही मेरी आंखें हर साल जलने वाले से सगर्व मिलीं, मैं सम्मोहित होता चला गया। तब वह छद्म रावण बोला, ‘और मित्र! कैसे हो?’ ‘ठीक हूं! तुम्हारी दुआ से। जलने से पहले तुम कैसा फील कर रहे हो?’ ‘जो भी हूं! बेफीला हो साल बाद फिर तुम्हारे सामने हूं,’ रावण रावणाना ठहाका लगा आगे बोला, ‘मित्र! मैं ठहरा कालातीत राक्षस-संस्कृति का अपराजित योद्धा! और तुम धरती पर विचरने वाले प्राणियों में सबसे तीक्ष्ण बुद्धि वाले मानव। वाह! आज फिर मुझे जलाने आए हो। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता! अबके फिर जला लेना! पर दहन से पूर्व, मेरी कुछ शंकाओं का समाधान करते जाना।

अपने भीतर भी देखा तुमने कभी झांककर? बैठे वहां मुझसे कितने रावण? मुझे मोहरा बनाकर छुपी रहें तुम्हारी करनियां, करते आ रहे मेरा इस्तेमाल। किस बात से सम्मोहित हो जो निगाहें देख नहीं पातीं तुम्हारी अपना आसपास या दूर तलक, आगे-पीछे, दाएं-बाएं। बार-बार मुझे जलाने के बाद भी आखिर तुम्हें क्या हासिल हुआ? पाई भी किसी बदतमीजी पर कामयाबी? जरा अपना शहर तो देखना। गली-मोहल्ले का चक्कर लगाकर आना कभी। मौका मिले तो गांव भी घूम आना। सड़क, मोड़, दोराहे-चौराहे पर खड़े होकर जरा रुकना। बाज़ार में भी नजर दे लेना। सोचना- विचारना। तनिक दौड़ाना दिमाग के घोड़े। अब कहो…..मेरे भी गुरु कितने नजर आए? थोड़ा फिर अपने भीतर भी झांक लेना, कहीं-न-कहीं तुम्हारे भीतर भी हंसता बैठा मिल ही जाऊंगा। निर्दोष-निहत्थे पर आग उगलती भीड़ की आंखों में विद्यमान मैं। पर देख पाए कभी? घायल को बीच सड़क तड़पते छोड़ करते हो इनसानियत की हिमालय-सी बातें। नफरत बोते आए धर्म प्रवक्ताओं में मौजूद तुम हमेशा। तुम्हारे ढोंगी बाबाओं के चरित्र का भी कैसे करूं व्याख्यान? राम के लिए और मुंह न मेरा खुलवाओ।

छी! बड़े राम बने फिरते हो पर, राम की कितनी कलाएं तुममें? एक-दो ही सही, गिना दो। धनुष कांधे पर उठाए थकते रहे सोए-सोए भी। तुमने कितनों का किया उद्धार? या कि बनते गए रक्तबीज ही। दसों लोक जाहिर हैं तुम्हारे किस्से। दुराचार से सिंहासन कितनी बार डोला तुम्हारा? भूल गए या याद दिलाना पड़ेगा? जलाओ! जलाओ! जलाओ! खूब जलाओ! सूखे चंदा खाए बांस, कुछ रद्दी को इकट्ठा कर पटाखों के सहारे। इस बहाने धरा पर खूब प्रदूषण फैलाओ। रहने दो न इसे अब जरा-सा भी जीने के काबिल….. या फिर जला कर देख लो भीतर का भी रावण। मित्र! वो रावण कब का मर चुका अपने बंधु-बांधवों के साथ जिसके सिर पर नाचते तुम रहते हो यदा-कदा। पीटते अपनी अच्छाई का ढिंढोरा। आखिर दिखाना चाहते हो किसे ये सारे ढोंग?’ सुन माथा ठनका मेरा, चेहरा लटका मेरा तो वह मुझे पाताल में गाड़ता आगे बोला वैसे ही मुस्कुराते हुए, ‘दोस्त! क्या जरूरी है हर बार बुराई को मिटाने के लिए हो नया अवतार? हिम्मत हो तो आज के जिंदा चलते-फिरते रावण को भी जला कर देखना तो एक साल में शायद धरती प्रदूषण और खरदूषण मुक्त हो जाए। हम भी बच जाएं जलने-जलाने की निर्वहन परंपरा से और बची रह पाए सही अर्थों में मानवता सृष्टि की खातिर। फिर भी जलाना चाहते हो तो मजे से जलाओ ये खाए चंदे से खरीदा घास-फूस। ना मालूम अभी मेरे बहाने तुम्हारे और कितने झूठ के इम्तिहान बाकी हैं जो अभी तक खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं,’ लगा ज्यों उसने लंबे-चौड़े प्रवचनों की पोथी खोल रखी थी उस वक्त, जो बंद ही नहीं हो रही थी। अचानक उसने माचिस जला ठहाका लगाते कहा, ‘आओ! साथ-साथ जलते हैं। देखते हैं जिंदा जलने में कितना मजा आता है। सात्विक हिंसा का साथ में आनंद लेते हैं’, लपटों को अपनी ओर उठती देख मैं चिल्ला उठा। आसपास के लोग डर गए। भीड़ में से कोई जोर से बोला, ‘पानी पिलाओ इसे’, पुतले में असली रावण देखकर शायद घबरा गया था मैं। हर साल जलने की पीड़ा के बाद भी न जलने की पीड़ा काश मेरे-तेरे भीतर फील हो दोस्त! पता नहीं, उस वक्त मैं हंस पाया या नहीं, पर हालत अपनी पतली थी। डरे-सहमे बस, मुंह से शब्द कुछ यूं निकले, ‘हे राम! ये रावण तो बड़ा आततायी है। सदियों पहले मर चुका। आज भी आतंकित करता है। बातों से भी धमकाता है। आज यहां से निःशब्द निकलने में ही अपनी भलाई है।’


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