बालकों का चरित्र निर्माण तथा मूल्यपरक शिक्षा

By: Feb 16th, 2020 12:04 am

अमरदेव अंगिरस
मो.-9418165573

आज समाज में आम धारणा है कि बच्चों और युवाओं में नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का अभाव है। उनके चारित्रिक विकास में सामाजिक भावना, भाईचारा, बड़ों का सम्मान, देशप्रेम, त्याग, परोपकार अथवा सहयोग की भावना नहीं पाई जाती। इसके लिए आज की शिक्षा प्रणाली और पश्चिमी सभ्यता को कारण माना जाता है। यह सही भी है। प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा में शिष्य गुरु को पिता से भी बड़ा स्थान देता था क्योंकि वह विद्यार्थी के सामाजिक एवं नैतिक विकास के लिए उत्तरदायी था। बहुत प्राचीन काल में आज्ञाकारी आरुणि, सत्यकाम, धु्रव, प्रह्लाद, नचिकेता शुकदेव आदि के दृष्टांत साहित्य में मिलते हैं जो गुरु सेवा या भक्ति में अपने सेवाभाव ही नहीं, आत्मबलिदान से भी गुरु के आदेश को शिरोधार्य करते थे। आज तिथि बदल गई है। गुरु का स्थान ‘टीचर’ ने ले लिया है जो पूज्य पिता के समान नहीं एवं बुजुर्ग ‘निर्देशक’ के रूप में परिवर्तित हुआ है।
शिक्षा का उद्देश्य बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का समाजोपयोगी सर्वांगीण विकास करना है। अत: शासकों ने अपने सामाजिक उद्देश्यों के लिए शिक्षा प्रणाली को निर्धारित किया है। बल्कि कह सकते हैं कि विदेशियों के भारत आगमन के पश्चात वह नैतिक मूल्यों की शिक्षा लुप्त प्राय: हो गई तथा संकीर्ण विभिन्न धर्मों की स्वेच्छाचारिता की आधारभूमि बन गई। किसी भी देश की समृद्ध संस्कृति एवं सभ्यता में उसकी समृद्ध परंपराएं, इतिहास एवं राष्ट्रीय नायकों की जीवन शैली एवं मूल्यों पर आधारित शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय एकता के मुख्य कारक होते हैं। दुर्भाग्य से आजादी के पश्चात पश्चिमी सामाजिक क्रांतियों एवं विदेशी शिक्षा प्राप्त हमारे नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता, साम्यवाद, व्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर भारतीय समृद्ध जीवन शैली एवं विचारधारा को छोडक़र पश्चिमी शिक्षा एवं विचारधारा को शिक्षा प्रणाली एवं राजनीति का आधार बना दिया।  फलस्वरूप, हमारे राष्ट्रीय नायक, महापुरुष, संत, साहित्य उपेक्षित हो गए। साम्राज्यवादी, हिंसक, विचारधारा शून्य पश्चिमी आक्रमणकारी सिकंदर, नेपोलियन, बाबर, अकबर, शाहजहां जैसे महान कहलाए तथा भारतीय नैतिक मूल्यों के प्रेरक विक्रमादित्य, अशोक, हर्ष, शिवा, प्रताप, राम, कृष्ण आदि उपेक्षित हो गए। राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक है कि शिक्षा अपनी माटी से जुड़ी हो। अपनी मां की भाषा अपने महान पूर्वज देश की प्रकृति बालक के बालमन में स्वाभाविक रूप से सामाजिक सौहार्द बैठाती है तथा उच्च जीवन मूल्यों को स्वाभाविक रूप से आत्मसात करती है।  उदारीकरण और सोशल मीडिया ने बच्चों का बालपन जैसे छीन लिया है। मोबाइल, इंटरनेट तथा टीवी ने बच्चों को इतना प्रभावित किया है कि स्कूल के बाहर हर समय वे गेम्स, फेसबुक और कार्टून आदि में पढऩे की तुलना में अधिक समय बिता रहे हैं। इससे उनकी आंखों, मानसिकता और शारीरिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है जिससे अनेक मनोवैज्ञानिक बीमारियां जन्म लेती हैं। शारीरिक विकास के लिए बच्चों का खेलना कम हो गया है। जिन परी कथाओं, लोककथाओं, पंचतंत्र, जातक कथाओं, युद्धवीरों की कथाओं से बच्चों की कल्पना शक्ति और नैतिक मूल्यों का विकास होता था, वह अब गायब हो गया है। देश-विदेश में अनेक बाल पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं और प्राय: सभी समाचारपत्रों में बच्चों का कोना होता है, परंतु बुक स्टालों से बच्चों की पत्रिकाएं गायब हैं। दूसरी तरफ बच्चों के पास बाल साहित्य की इन पत्र-पत्रिकाओं के लिए अवकाश नहीं है।  नैतिक शिक्षा को केवल पढऩे-पढ़ाने तक ही सीमित मानते हैं। बच्चे बड़ों तथा अध्यापकों के आचरण, व्यवहार का अनुकरण करते हैं। आज शिक्षण संस्थाओं में दुराचरण के किस्से आम हो गए हैं। यह स्थिति बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। आज आवश्यकता है कि गुणवत्ता शिक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय नायकों, समृद्ध परंपराओं एवं सही इतिहास की जानकारी पाठ्यक्रमों में शामिल हो। घरों में परिवार का परिवेश संस्कारपूर्ण हो। मां-बाप के आचरण का बच्चों की आदतों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
एक स्कूल के बच्चे का प्रसंग याद आता है। छठी कक्षा के एक छात्र के 100 रुपए कक्षा में गुम हो गए तो सारी कक्षा की तलाशी ली गई। खैर, रुपए तो न मिले किंतु जब छात्र से पूछा गया कि 100 रुपए क्यों लाए थे तो छात्र उचित उत्तर न दे सका। बार-बार पूछने पर उसने ज्योमैट्री बॉक्स से एक चिट निकाला जिसमें लिखा था-‘ओल्ड मोंक हाफ’ यानी उसके फौजी पिता ने यह सौदा मंगवाया था। बच्चों के पठन-पाठन के अतिरिक्त नैतिक शिक्षा की पुस्तकें पाठशाला पुस्तकालयों में एक पीरियड के रूप में आवश्यक रूप से डिसप्ले होनी चाहिए।  बच्चों की जिज्ञासा के लिए घर-समाज तथा देश में घटित समस्याओं की जानकारी, लेखन के माध्यम से बच्चों में सामाजिकता का मान उत्पन्न कर सकती है। नकारात्मक साहित्य की अपेक्षा सकारात्मक दृष्टिकोण बच्चों में नैतिक गुणों का विकास कर सकता है। इसके लिए माता-पिता तथा विद्यालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।


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