बाल साहित्य स्कूली पाठ्यक्रम में

By: Feb 9th, 2020 12:05 am

अनंत आलोक

मो.-9418740772

किसी देश का भविष्य उसकी पाठशालाओं में लिखा जाता है और यह कटु सत्य है कि इस भविष्य को लिखने वाले लेखक यानी अध्यापक मजबूर हैं कि वे केवल वही लिखें जो उनसे लिखवाया जाए। जरूरी है कि पाठ्यक्रम निर्धारित होना चाहिए लेकिन प्रत्येक अध्यापक की पाठशाला में पढ़ने वाला प्रत्येक विद्यार्थी मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से भिन्न है। प्रत्येक बालक-बालिका की आवश्यकताएं भिन्न हैं। उनके सीखने के ढंग भिन्न हो सकते हैं। उनकी परिस्थितियां भिन्न हो सकती हैं। फिर भला कैसे हम एक ही पाठ्यक्रम निर्धारित कर यह अपेक्षा रख सकते हैं कि प्रत्येक बालक-बालिका का अधिगम एक जैसा हो। जब हम हिमाचल की बात करते हैं तो यह और भी जटिल जान पड़ता है। एनसीएफ -2005 के अनुसार प्रत्येक बालक या बालिका का पाठ्यक्रम उसके स्थानीय आधार पर, उसकी आवश्यकता के अनुसार निर्धारित होना था, लेकिन हम कहां यह कर पाए हैं, यह हम सब जानते हैं। पाठ्यक्रम बाल मनोविज्ञान के आधार पर तैयार किया जाता है, लेकिन यह भी उतना ही आवश्यक है कि जिस कक्षा के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित किया जा रहा है, उस कक्षा के अध्यापक को उसके निर्माण में शामिल किया जाए क्योंकि वह उन बालक-बालिकाओं के बारे में, उनके स्तर के बारे में अधिक जानता है और वास्तविकता भी वही जानता है जो उन्हें पढ़ा रहा है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। कुछ ही लोगों के द्वारा तैयार करवाया गया पाठ्यक्रम पूरे देश के लिए निर्धारित कर दिया जाता है।  हद तो तब हो जाती है जब पाठ्यक्रम में निर्धारित किया गया बाल साहित्य ही संदेह के घेरे में आ जाता है। बाल साहित्य का पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय हमें बाल साहित्य में विशेष योग्यता रखने वाले अध्यापक या लेखक का परामर्श व सहयोग लेना चाहिए ताकि कोई भ्रम या भ्रांति न रहे। पाठ्यक्रम में निर्धारण से पूर्व विषय वस्तु के साथ उसकी भाषा व शिल्प सही है या नहीं, यह विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। आज हिमाचल में जो पाठ्यक्रम निर्धारित है, वह भले ही राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित है लेकिन बाल साहित्य की बात करें तो दोनों ही भाषाओं यथा हिंदी और अंग्रेजी में न तो बाल कहानियों का कोई स्तर है और न ही बाल कविताओं का।

विशेष रूप से जब हम छोटी कक्षाओं की बात करें जिनमें एक से पांच कक्षा आती है, वहां आवश्यक है कि कविताएं छंदबद्ध हों। छंद में यति, गति, लय और तुकांत हों, जिन्हें अध्यापक-अध्यापिका गाकर बालक-बालिका को सिखा सकें। छंद की विशेषता है कि वह नन्हें बालक ही नहीं, बड़ों को भी आनंद प्रदान करता है। छंद सहजता से ग्राह्य है। छंद सहजता से स्मरण होता है जो बालक-बालिका में साहित्य के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न करता है। लेकिन वर्तमान में ऐसी कविताएं पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं जो किसी छंद विशेष का पालन नहीं करतीं और यह केवल हिंदी में ही नहीं, अंग्रेजी में भी है। कुछ भारी-भरकम बोझिल कविताएं निर्धारित कर हम बालक-बालिका के मन में साहित्य के प्रति अरुचि उत्पन्न कर रहे हैं, ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बालक या बालिका का कोमल मन अभी इतना विकसित नहीं हुआ होता कि हम उससे आशा करें कि वह उपमान, बिम्ब, अभिधा, लक्षणा, व्यंजना को समझे। यह सब समझने के लिए महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं को भी नाकों चने चबाने पड़ते हैं, फिर हम इस स्तर पर ऐसी आशा कैसे कर सकते हैं। यहां कविता में सिर्फ  और सिर्फ  छंद ही प्रभावशाली हो सकता है। कहानियां भले ही वैज्ञानिक आधार पर मानव मूल्यों की सीख देने वाली सामजिक हों, कोरी कल्पना से बाहर निकलें तो हमारा भविष्य शायद सुखद हो सके और हम एक सुखी-समृद्ध समाज की कहानी गढ़ सकें।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App