बूढ़ों की फजीहत?

By: Feb 27th, 2020 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

देश आधुनिक हो रहा है। इसे एक युवा देश भी कहा जाने लगा है, क्योंकि इसकी आधी जन-संख्या काम कर सकने योग्य युवा आयु वर्ग में से आती है। इस देश के प्रधानमंत्री ने जब अपना पद संभाला था, तो उन्होंने ‘मेक इन इंडिया’ बनाने के लिए, अपनी अनगिनत विदेश यात्रओं में, प्रवासी निवेशकों को यही कह कर लुभाया था कि उनका देश मेहनती परंतु बेकार नौजवानों से भरा पड़ा है। नया भारत बनने के नाम पर, जो प्रवासी धन भारत आया है, वह निवेश के रूप में नहीं बल्कि मैरिज पैलेस और आलीशान कोठियां बनाने में खोजा नजर आ रहा है। इस पर इन प्रवासियों के भारत में रह गए निकम्मे रिश्तेदारों ने रखवालों के रूप में अपना निवास बना लिया। सरकार ने ऐसे प्रवासियों को दिलासा देने के लिए कई निवेशक सम्मेलन करवाए, जिसमें उन्हें दोहरी नागरिकता से लेकर त्वरित न्याय के लिए विशेष अदालतें बनाने के कई सपने दिखाए। कई वादानुमा भाषण किए। आप तो जानते ही हैं कि साहिबों की अपने देश की एक बड़ी विशेषता यह है कि यहां जिस फफूंद लगे बायस्कोप से आम जनता को सपने दिखाए जाते हैं, वे कभी पूरे नहीं होते, जो वचन दिए जाते हैं, उनके पूरे होने के भाग्य में स्थान नहीं लिखा रहता है, इसलिए सपने धराशायी होते हैं और वादे पूरा न हो पाने की शर्मिंदगी ङोलते हैं। नतीजा यह निकला कि विकासशील से विकसित होता राष्ट्र अल्प-विकसित होने का लेबल लगवा बैठा। आजादी अपने शैशव से जवान होती-होती अपने नेताओं की आप-धापी का रोग लगा बैठाए यूं देश की आजादी बच्चे से जवान होने के स्थान पर बूढ़ी हो गई। देश की क्रांतियां कतार में खड़े आखिरी लोगों का कायाकल्प करने के स्थान पर अमीर व्यावसायिक घरानों की चांदी हो गई। देश का योजनाबद्ध आर्थिक विकास सफलता के नए मील पत्थर हुआ, कि उसे बनाने वाला योजना आयोग चोला बदल कर नीति आयोग बन गया। यह अभी तक नीतिविहीन है और फैसला नहीं कर पाया कि पंच वर्षीय योजनाओं का नाम बदल कर अब उसे किस दिवास्वप्नों के स्वप्न मार्ग पर डाला जाए ताकि हर हाथ को काम और समावेशी विकास के योजना प्रारूप अकाल मृत्यु को प्राप्त न हो। देश की आधी जन-संख्या काम तलाश करते-करते असमय अपना यौवन खो कर बूढ़ी न हो जाए। रोटी-कपड़ा और मकान के हाशिए के बाहर छिटके लोगों की संख्या कम होने का नाम नहीं लेती। देश में पहले ही बूढ़ों की संख्या कम नहीं है। ग्यारह करोड़ निराश्रित बूढ़े बरसों से उन कल्याण खिड़कियों से झांकने का प्रयास करते हैं, जहां बुढ़ापा पेंशन देने के वादे कभी पूरे नहीं होते। कभी-कभार कोई बूढ़ा अपनी फजीहत से परेशान हो आत्म-हत्या करके इन बंद खिड़कियों पर दस्तक देने का प्रयास करता है, तो नौकरशाहों के कारिंदे उन्हें समझा देते हैं कि सरकार का खजाना खाली है और निकटतम भविष्य में इसके भरने की कोई संभावना नहीं। बूढ़ों की यह कतार लंबी होती जा रही है क्योंकि आयुष्मान योजना की कृपा से इनकी संख्या में प्रति डेढ़ दो करोड़ की वृद्धि की संभावना बढ़ गई है, लेकिन असल संकट यह नहीं है। खतरा देश की आधी जन-संख्या की जवानी का है, जो बरसों से काम न मिलने के कारण अचाक बूढ़ी हो गई है। कायाकल्प के नारे लगाने वाली सरकारें क्या राजा अयाति हो गई है, जो अपने नौजवानों का यौवन मांग कर अपने भाषणों के तेवरों और नाटकीय भंगिमाओं में अचानक जवान हो गई है। 


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