बेगुनाही की सजा भुगत रहे मनोरोगी

By: Feb 20th, 2020 12:05 am

अजय श्रीवास्तव

लेखक, शिमला से हैं

परिवार से बिछुड़ कर बेसहारा हो चुके मनोरोगियों को न तो संवैधानिक प्रावधानों का पता होता है और न ही आम जनता इस बारे में जागरूक होती है। कानून ने आंख बंद करके बेसहारा मनोरोगियों को रेस्क्यू कराने से लेकर अस्पताल में भर्ती कराने और उनकी तीमारदारी तक की जिम्मेदारी पुलिस पर डाल दी। इसलिए पुलिस विभाग भी परेशानी महसूस करता है…

हम में से कोई भी ऐसा नहीं होगा जिसने कभी कोई मनोरोगी न देखा हो। पड़ोस के परिवारों, रिश्तेदारों में और अकसर सड़कों पर बेसहारा हालत में घूमते हुए मनोरोगियों पर सबकी नजर पड़ती है, लेकिन इस गंभीर विषय पर कभी कोई चर्चा नहीं होती। परिवार से बिछुड़ कर बेसहारा हो चुके मनोरोगियों को न तो संवैधानिक प्रावधानों का पता होता है और न ही आम जनता इस बारे में जागरूक होती है। कानून ने आंख बंद करके बेसहारा मनोरोगियों को रेस्क्यू कराने से लेकर अस्पताल में भर्ती कराने और उनकी तीमारदारी तक की जिम्मेदारी पुलिस पर डाल दी। इसलिए पुलिस विभाग भी परेशानी महसूस करता है। बेघर मनोरोगियों को सबसे ज्यादा दुर्दशा और दयनीय स्थिति का सामना करना पड़ता है। सड़कों पर भटकते हुए जिंदगी बसर करना उनकी नियति बन जाता है। संविधान में वर्णित कोई भी मौलिक अधिकार उन्हें प्राप्त नहीं होता। वे डस्टबिन और नाली से भोजन ढूंढ कर खाते हैं, मौसम की मार खुले में रह कर झेलते हैं, स्वच्छता उनकी किस्मत में नहीं होती। मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 हिमाचल प्रदेश में भी लागू किया जा चुका है, लेकिन बेसहारा मनोरोगियों के बारे में कानून के प्रावधान लागू करा पाना अत्यंत कठिन काम है। यहां तक कि इस विषय पर हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के 2015 के स्पष्ट आदेश भी लागू नहीं किए जा रहे हैं। हिमाचल जैसे पहाड़ी प्रदेश में सामान्यतः मनोरोग को कोई रोग नहीं माना जाता है। लक्षण बढ़ने पर भूत-प्रेत का प्रकोप मानकर लोग देवता की शरण में जाते हैं और झाड़-फूंक का सहारा लेते हैं। यदि कोई परिवार जागरूक भी है तो मनोचिकित्सक सहज सुलभ नहीं होते। ऐसी परिस्थितियों में मनोचिकित्सक से शुरुआती जांच एवं इलाज न कराने से मनोरोग की स्थिति गंभीर हो जाती है। हिमाचल प्रदेश सरकार के आंकड़े बताते हैं कि राज्य की लगभग 74 लाख आबादी में 7 लाख 40 हजार व्यक्तियों में मनोरोग के लक्षण पाए जाते हैं। प्रदेश में एक लाख 48 हजार लोग ऐसे हैं जो गंभीर स्थिति के मनोरोगी हैं। बेसहारा मनोरोगियों का कोई भी आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है, लेकिन अनुमान है कि प्रदेश में कई हजार बेसहारा मनोरोगी सड़कों पर रहते हैं। इनमें से बड़ी संख्या उनकी है जो दूसरे राज्यों से भटक कर हिमाचल प्रदेश आ जाते हैं। इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज अस्पताल में 30 बिस्तर मनोरोगियों के लिए निर्धारित हैं। शिमला में राज्य के एकमात्र  मनोरोग अस्पताल एवं पुनर्वास केंद्र में 62 बिस्तरों की व्यवस्था है।  टांडा मेडिकल कालेज अस्पताल एवं कुछ जिलों में मनोरोगियों के इलाज एवं उन्हें भर्ती करने की व्यवस्था है। राज्य में चार मनोचिकित्सा केंद्र निजी क्षेत्र में भी चल रहे हैं। सरकारी और निजी क्षेत्र में प्रदेश में कुल 26 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं जो आवश्यकता से बहुत कम हैं। मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 में स्पष्ट प्रावधान है कि सड़कों पर घूमने वाले बेसहारा मनोरोगियों को देख कर या उनके बारे में सूचना मिलने पर पुलिस का थाना अध्यक्ष उसका संज्ञान लेगा। पुलिस उसे अपने संरक्षण में लेकर नजदीकी अस्पताल में जांच कराएगी। इसके बाद उसे न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया जाएगा।

मजिस्ट्रेट  का दायित्व है कि वह बेसहारा मनोरोगी को मनोचिकित्सा के लिए सरकारी खर्चे पर अस्पताल में भर्ती कराने का निर्देश दे। कानून में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग और सरकारी खजाने से चलने वाली संस्था रेड क्रॉस को बेसहारा मनोरोगियों को रेस्क्यू कराने से लेकर अस्पताल में भर्ती कराने तक के काम में कहीं भी जिम्मेदारी नहीं दी गई है।  पुलिस जब उन्हें रेस्क्यू कराने के बाद अस्पताल में भर्ती कराती है तो उनके लिए कोई भी अटेंडेंट  नहीं होता है। एक सिपाही से कानून अपेक्षा करता है कि वह मनोरोगी की तीमारदारी के लिए उसके साथ चौबीस घंटे अस्पताल में रहे। इसके लिए वह प्रशिक्षित ही नहीं होता है। बेसहारा मनोरोगी के  अस्पताल में भर्ती रहने तक उसके साथ सुरक्षा के लिए दो सिपाहियों की तैनाती रहती है। पहले से ही कर्मचारियों की कमी से जूझ रही पुलिस इतने सिपाहियों को मनोरोगियों के साथ लगाने से कतराती है। हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर 2015 में अपने फैसले में दोहराया था कि सड़कों पर घूमने वाले बेसहारा मनोरोगियों को रेस्क्यू कराने का दायित्व पुलिस का है। अदालत ने इसके लिए जिला पुलिस अधीक्षकों को जिम्मेदार बनाया था, लेकिन इसे लागू करने में आ रही व्यावहारिक परेशानियों के कारण बेसहारा मनोरोगियों को सड़कों पर नर्क से बदतर जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ रहा है। राज्य में पहली बार शिमला की स्वयंसेवी संस्था उमंग फाउंडेशन ने सड़कों पर घूमने वाले बेसहारा मनोरोगियों को जनता के सहयोग और पुलिस के माध्यम से रेस्क्यू कराने का अभियान तीन साल पहले शुरू किया था। इसमें 10 जिलों से अभी तक 150 से ज्यादा मनोरोगियों को बचाया गया। इलाज के बाद याददाश्त आने पर उनमें से करीब एक तिहाई का अपने घरों में लौटना संभव हो सका। राज्य मनोरोग अस्पताल का इसमें बड़ा योगदान रहा, लेकिन चुनौतियां भी बहुत हैं। मनोरोगियों के परिवार का पता लगा पाना मुश्किल काम है। बहुत से मनोरोगी बोलते नहीं, कई की याददाश्त गुम होती है तो कुछ की भाषा समझना कठिन होता है। अस्पताल को आधार कार्ड से जुड़ी बायोमीट्रिक मशीन दी जानी चाहिए ताकि मरीजों की अंगुलियों की छाप से उनके आधार कार्ड को ढूंढा जा सके। सरकार को चाहिए कि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 के नियमों में संशोधन कर के पुलिस की जिम्मेदारी सिर्फ  रेस्क्यू करने तक सीमित कर दी जाए। बेसहारा मनोरोगियों के इलाज और पुनर्वास का दायित्व सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग, स्वास्थ्य विभाग और रेडक्रॉस को दिया जाना चाहिए।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App