रचना से निकले बल्लभ डोभाल

By: Feb 2nd, 2020 12:06 am

जिंदगी को लिखना आसान हो सकता है, लेकिन लिख कर जिंदगी को पाना केवल बल्लभ डोभाल की तरह अपनी परिपाटी का कोई बिरला साहित्यकार ही कर सकता है। वह अपनी रचनाओं के समुद्र में खुद ही गोताखोर बन जाते हैं और कहानियों के पात्र बन कर मीलों दूर लेखन के छोर पर एहसास कराते हैं। अपनी परंपरा का लेखक, लेकिन अद्भुत व्यक्तित्व का ऐसा स्वामी कि जीवन के सेतु पर चलते-चलते रचनाशीलता की मंजिल तलाश लेता है। वह ऐेसे पथिक हैं, जो मंजिल को खुद से मिलने का निमंत्रण देते हैं और यायावरी के अपने संसार में ‘कैसे कैसे लोग’ ढूंढ लेते हैं। अपने संस्मरणों से चिन्हित ‘आधी रात का सफर’ और ‘जो भुलाए न बने’ में वह दुनिया के भीतर अपनी दुनिया के उजाले खोज लेते हैं। आगामी 30 मार्च को जीवन के नब्बे वर्ष पूरे कर रहे बल्लभ डोभाल आज भी पर्वतीय अंचल से निकली किसी नदी के पवित्र-निर्मल प्रवाह की तरह आकर्षित करते हैं, अपनी वैचारिक धाराओं को उसी खनक से पेश करते हैं, जो वर्षों पहले उत्तराखंड से अपनी यात्रा पर निकलीं। श्यामविमल लिखते हैं, ‘देखने में बल्लभ डोभाल का व्यक्तित्व पुरानी कहानी सरीखा प्रेमचंदी लगता है, परंतु अपनी आदतों से, बोली से और अपनी अधिकांश कहानियों से तथा अन्य भी कुछ कारणों से वह खास षट्पदी प्राणी है।’ डा. राहुल ने उनके बारे में कहा है, ‘बल्लभ डोभाल की दृष्टि खोजी है, अतः उन्होंने पर्वतीय जीवन-शैली में व्याप्त मिथकीय प्रसंगों को अपने निबंधों का विषय बनाया है।’

रमेश चंद्र त्रिपाठी लिखते हैं, ‘बल्लभ डोभाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। शुरू से यायावर रहे। साहित्य सेवा के लिए उन्होंने पूरा जीवन समर्पित कर दिया। जहां लोग नौकरी के लिए दूसरे से सिफारिश करते हैं, वहां बल्लभ डोभाल मिली हुई नौकरी को ठुकराते रहे। कभी भी बंध कर नहीं रहे।’ भीड़ से अलग, लंबे कद व छरहरे बदन के भीतर अपनी जिज्ञासाओं से बाहर निकलते बल्लभ कभी कविता के माध्यम से अपने चिंतन की परिभाषा लिखते हैं, ‘बुझे ये आग के शोले न जाने कब भड़क जाएं। हुई नाकाम सी बाहें न जाने कब फड़क जाएं।’ ग्रामीण पर्वतीय अंचल की सोहबत में लोकगीतों ने उन्हें गुनगुनाना सिखाया तो ‘सैनिक’ तथा ‘कदम-कदम पर’ कविता संग्रह प्रकाशित हुए, लेकिन उन्होंने हिंदी कविता को संस्कृत की प्रतिध्वनि मानते हुए स्वीकार किया कि उर्दू के रंग में हिंदी कविता ने तेवर दिखाए हैं। भगवती प्रसाद नौटियाल के अनुसार बल्लभ डोभाल ने अपना साहित्यिक जीवन पचास के दशक से जीना शुरू कर दिया था। वह उत्तराखंड के नहीं, अपितु हिंदी जगत के उन वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित साहित्यकारों में से एक हैं जिनकी गिनती प्रथम श्रेणी के साहित्यकारों में होती है। अपने विविधगामी हिमालयी व्यक्तित्व के समान ही उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया। कविता, कहानी, उपन्यास, जीवनी तथा संस्मरणों तक को उनकी लेखनी ने शब्द दिए हैं। भारतीय परिवेश में सत्य को टटोलते कथ्य के उद्गम में बल्लभ की अपनी लहरें कहानी के वजूद की तरह चित्रित हैं। वह जीवन के इस पड़ाव में भी मानवीय मूल्यों की दुर्दशा में भारतीय लोकतंत्र के विरोधाभासों व गिरती मान्यताओं से अपने दिल की आवाज का मुकाबला करते हैं। गढ़वाल में जन्मा यह व्यक्ति पूरी तरह प्रकृति के सांचे में अपनी अभिव्यक्ति की समग्रता पेश करता है। इनके लिए भागसूनाग मंदिर धर्मशाला की बेंच हो या गोवा की रेत पर निकले सफर की कोई मंजिल रही हो, वह रिश्ते जोड़ते अंतरंग मुलाकातों में अपने पात्रों का मर्म चुनते हैं।वह ‘कहां है स्वर्ग’ जैसी कृतियों में आंतरिक एहसास के वट वृक्ष की तरह स्थिरता के बीच अस्थिर होते मंतव्य का अर्थ खोजते हैं। बल्लभ सिर्फ कवि, कहानीकार या उपन्यासकार नहीं हैं। वह हिमालयी इतिहास हैं, हिमालयी भूगोल हैं, हिमालयी विज्ञान हैं, हिमालयी आयुर्वेद हैं। वह हिमालयी अध्यात्म व दर्शन भी हैं। उनके जीवन को हम किसी पहाड़ी झरने की तरह बहते हुए देख सकते हैं।

सच कहने का हमेशा जुर्माना भुगता

किस्त-30

किताब के संदर्भ में लेखक

दिव्य हिमाचल के साथ

साहित्य में शब्द की संभावना शाश्वत है और इसी संवेग में बहते कई लेखक मनीषी हो जाते हैं, तो कुछ अलंकृत होकर मानव चित्रण  का बोध कराते हैं। लेखक महज रचना नहीं हो सकता और न ही यथार्थ के पहियों पर दौड़ते जीवन का मुसाफिर, बल्कि युगों-युगों की शब्दाबली में तैरती सृजन की नाव पर अगर कोई विचारधारा अग्रसर है, तो उसका नाविक बनने का अवसर ही साहित्यिक जीवन की परिभाषा है, जो बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और एकत्रित होते ज्वारभाटों के बीच सृजन की पहचान का मार्ग प्रशस्त करता है। यह शाृंखला किसी ज्ञान या साहित्य की शर्तों से हटकर, केवल सृजन की अनवरत धाराओं में बहते लेखक समुदाय को छूने भर की कोशिश है। इस क्रम में जब हमने बल्लभ डोभाल के संस्मरण ‘कैसे कैसे लोग’की पड़ताल की तो कई पहलू सामने आए… 

दिहि : सही कहने को कितना सहा?

डोभाल : मैंने सच कहने का हमेशा हर्जाना भुगता है। गांव में बचपन की नसीहतें और सच पर पड़ती मार आज भी याद है, फिर भी सच की अभिव्यक्ति के लिए जीवन में जोखिम उठाना पड़ता है। ऐसा झूठ फिर भी हजारों गुनाहों से माफ है जिससे किसी का नुकसान न हो, लेकिन आज तो लोग दूसरे की हानि के लिए सफेद झूठ बोलना पसंद करते हैं। फिर भी परिवेश में थोड़ा बहुत सच बचा है।

दिहि : आपके भीतर साहित्य और अस्तित्व  का क्या रिश्ता रहा?

डोभाल : मेरा अस्तित्व ही साहित्य है। बचपन में अपनी जिज्ञासा के चलते गीत सुने, कलाएं सीखीं। आज भी चाचा के गाए स्रोत्तर सुनाई देते हैं। घर में बैठकें होती थीं, गांव के लोग बतियाते थे, लेकिन अब समाज और यथार्थ के बीच कल्पना ही रह गई है। लगता है बहुत कुछ बदल गया।

दिहि : जीवन से पाने को जो रह गया?

डोभाल : मेरी इच्छा तो कभी जंगल में किसी पहाड़ी नदी के किनारे एक फूंस की कुटिया में रहने की रही है, जहां एकांत में लिखता-पढ़ता।

दिहि : कुछ नई पीढ़ी, नए लेखकों के उत्साह पर आपके विचार?

डोभाल : नए लेखक अपने संवाद और लेखन से बीच-बीच में प्रभावित करते हैं। वर्तमान की खोखली चकाचौंध से अलग मैं युवाओं को यही कहूंगा कि पूर्वजनों की याद में उठो और अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो जाओ।

दिहि : कविता पर आप कुछ सख्त मिजाज रहे हैं?

डोभाल : कविता कब की जा चुकी है। वर्तमान में जिसे कविता कहा जा रहा है, उसे पारंपरिक कविता का मृत्यु कलाप मैं मानता हूं। हर ऐरे गैरे को कविता करने की छूट है। इस पर सरकारी अकादमियों और बड़े संस्थानों द्वारा जो सम्मान, पुरस्कार दिए जाते हैं, वहां कविता तो एक माध्यम है। जिसकी जान-पहचान है, जुगत भिड़ाने में जो माहिर है, वे पुरस्कार पा जाते हैं।

दिहि : आपकी यायावरी वृत्ति का असली मकसद क्या रहा?

डोभाल : यायावरी से गुजरते मैंने तंगहाली और बाधाओं के बीच लोगों के जीवन को महसूस किया। जीवन की पूर्णता पाने के बजाय खोने में कहीं अधिक है। जोखिम बना रहे, इसलिए जानबूझ कर जोखिम उठाने की आदत जैसी बनी रही।

दिहि : पहाड़ से जुड़ा आपका पहाड़ीपन?

डोभाल : पहाड़ से जन्म और बचपन का नाता, न भुलाए भूलता है और न ही छुपाए छुपता है। जन्म स्थान से सभी का लगाव होता है। फिर जहां खुशियों, उल्लास और उमंगों के साथ बचपन बीता हो, उस जगह को कैसे भूला जा सकता है। पहाड़ की अपनी विशेषताएं हैं। किताबों के पन्नों की तरह जहां दृश्य बदलते हों, वहां आदमी प्रकृति की सुंदरता-विविधता से जुड़ता है। उसमें खो जाता है। मैंने महानगरों के शुष्क-नीरस जीवन पर भी कहानियां लिखी हैं, पर पहाड़ी होने के नाते पहाड़ को लेकर लिखने में जो तृप्ति मिली है, उसके आगे सभी कुछ फीका लगता है।

      -शोध, अध्ययन एवं मुलाकात : फीचर डेस्क

 बल्लभ डोभाल के बारे में विद्वानों के विचार

ओपी टाक, चित्रकार : लगभग पिछले 20-25 वर्षों से गर्मियां आते ही मुझे अपने मित्र लेखक बल्लभ डोभाल के धर्मशाला पहुंचने का इंतजार रहता है। अपर धर्मशाला में अंग्रेज शासकों के नाम पर मकलोड़गंज और फर्सेटगंज बाजार बसे थे। बाद में अंग्रेजों द्वारा इटली के साथ युद्ध में पकड़े गए कैदियों के लिए योल कैंप नामक बस्ती बसाई गई। डोभाल इन कैदियों की दिलचस्प कहानियां, उनकी दयनीय दशा और बेचारगी के बारे में भी बताते हैं। कालेज में अभिनेता देवानंद जब सैकेंड इयर में थे, तो वह फर्स्ट इयर में थे। जान पहचान थी, पर प्रेम चोपड़ा के साथ खासी दोस्ती रही। तिब्बती जन जीवन, उनकी समस्या व संस्कृति पर अध्ययन कर डोभाल ने अपना पहला उपन्यास ‘तिब्बत की बेटी’ हिंदी साहित्य को दिया। बाद में तिब्बती लेखिका रिंचन डोलमा द्वारा अंग्रेजी में इसका अनुवाद भी हुआ, तब से धर्मशाला निवासी तिब्बतियों में ‘दिल्ली लेखक बाबू’ नाम से जाने जाते हैं।

डा. गौतम शर्मा व्यथित, साहित्यकार : धर्मशाला के भागसूनाग धाम ठीक स्लेट खानों के दामन में बसा गांव है जहां कभी गढ़वाल से आए ज्योतिषी वर्षों तक भागसू मंदिर के प्रवेश द्वार के दाईं ओर सीढि़यां चढ़ते ही पहाड़ी छप्पर शैली में बने मकान की धरातल कमरे में रहा करते थे। बड़े लोकप्रिय थे ज्योतिषी। मैं भी बड़ी बहन के साथ गया था भविष्य जानने। आज भी जब कभी अपना जन्म पत्र किसी को दिखाता हूं तो उनका चेहरा आंखों के सामने उभरने लगता है। उसी परिवेश में हुई थी कभी मुलाकात बल्लभ जी से। तब से वह मेरे जीवन का एक हिस्सा बन गए। बल्लभ का लेखक हिमाचल से जुड़ा ही नहीं है, बल्कि इसमें वह बचपन से जीया है। खेला कूदा है, मस्त मलंगी की है। सामने की धार के दामन को छूने के प्रयास में साधुओं-हिप्पियों के साथ खूब घूमा है। शायद इसीलिए इनकी रचनाओं में यहां के रास्तों की महक, गुफ्तगू, हवाओं की हरकतें, सुबह की मुस्कान और रातों की तारीकी, झरनों-नदियों की थिरकन और पक्षियों का गुंजन मिलता है। डा. खन्ना, चित्रकार ओपी टाक, डा. अशोक जेरथ आदि अनेक स्थानीय लेखक-प्रशासक इनसे मिलते रहे।

सुशीला डोभाल, पत्नी : शादी के बाद मेरे जीवन साथी के तीन वर्षों तक दर्शन नहीं हुए। जब सुना कि वह शादी के खिलाफ थे और जोगी बनकर दुनिया देखने की इच्छा रखते थे, तो कभी चिंता हो आती। कुछ मेरी छूट ने भी इन्हें वह स्वतंत्रता दी जो ये चाहते थे वही किया। अपने घूमने-फिरने और लिखने के अलावा कुछ भी सोचा और जाना नहीं। कभी सोचती हूं, घर-गृहस्थी के छोटे-बड़े काम जरूरी हैं, पर इनसे भी बड़े काम हैं, जो सभी नहीं कर सकते। इसलिए कई शिकायतें होने पर भी कोई शिकायत नहीं करती।

 

 


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App