विकास का घास

By: Feb 18th, 2020 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

मुंह में बनारसी पान दबा, पंडित जॉन अली अकेले ही मंद-मंद मुस्कराते हुए मस्ती में अपने घर की तरफ बढ़े जा रहे थे। आज उनके चेहरे पर ऑफिस की दिन भर की थकान भी नजर नहीं आ रही थी। मैंने अपने चौबारे से झांकते हुए उन्हें आवाज दी, तो बोले, ‘‘अमां यार! आज साढ़े पांच बजे ही छत पर सज गए हो। क्या बात है, दफ्तर नहीं गए क्या?’’ मैंने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है। दफ्तर तो गया था, लेकिन आज महासू डे था, सो दोपहर में ही खिसक आया, लेकिन आप क्यों मंद-मंद मुस्कराते हुए डिनर से पहले ही पान चबा रहे हैं। क्या कोई लॉटरी लगी है?’’ उन्होंने अपनी वही मुस्कान यथावत बिखेरते हुए कहा, ‘‘अमां यार! लॉटरी तो नहीं लगी, लेकिन विकास का घास छील कर आ रहा हूं।’’ मैंने फिर प्रश्न उछाला, ‘‘पंडित जी, यह विकास का घास क्या होता है?’’ यह सुनते ही वह बोले, ‘‘यार! तुम भी तो पिछले तीस सालों से सरकारी चिडि़याघर में पल रहे हो, लेकिन अभी तक विकास के घास के बारे में नहीं जानते।  धिक्कार है ऐसे सरकारी जीवन पर। तभी तुम दो कमरों के मकान में सिमट कर रह गए हो। अपने बराबर के बाबू को देखो। शहर में उसके चार घर हैं और पांच गाडि़यां। पीली धातु से लकदक उसकी बीवी हर वक्त सुबह के सूर्य की भांति दमकती रहती है और तुम्हारी पिछले चार महीनों से पीलिया से पीली हुई जा रही है, उनके व्यंग्य बाणों से आहत मैं खिसियाते हुए बोला, ‘‘पंडित जी, साफ-साफ बताओ, यह विकास का घास क्या होता है? कहां उगता है? इसे कौन उगाता है? और इसके क्या फायदे हैं?’’ मेरे सवालों को बड़े ध्यान से सुनते हुए पंडित जी किसी बगुले भगत की तरह आंखें बंद कर कहीं गहरे उतर गए। उनकी आवाज अब किसी गहरे कुएं से आती प्रतीत हो रही थी। ‘‘सुनो, गोबर गणेश! अगर आदमी काम का हो तो उसे विकास के घास के बारे में जानने की जरूरत महसूस नहीं होती। वह अपनी दिव्य दृष्टि से ही पता लगा लेता है कि हमारे देश में विकास का घास सत्, द्वापर और त्रेता युग में भी वैसे ही उगता आया है, जैसे कलियुग में उगाया जा रहा है। विकास का घास, एक खास किस्म का घास है जो केवल सरकारी भवनों, सड़कों, पुलों इत्यादि में ही उगता है। कभी लोक निर्माण विभाग की पक्की सड़कों को देखकर सोचा है कि वह उसके गड्ढों को मिट्टी से ही क्यों भरता है? क्योंकि उन्हें उसमें विकास की घास जो उगानी होती है। पक्की सड़कों में तुम्हें जगह-जगह दूब, अन्य घास-पौधे उगे हुए मिल जाएंगे। ऐसे ही सरकारी भवनों की छतों पर कई किस्म की घास और पौधे उगे हुए दिख जाएंगे। दीवारों पर पीपल, आम, गूलर इत्यादि के दरख्त भी देखे जा सकते हैं। कई बार तो सरकार स्वयं ही विकास का घास उगाने के लिए अच्छे-भले भवनों को छोड़कर नए भवनों का निर्माण करवाती है ताकि तजे हुए भवनों में विकास का घास उगाया जा सके। इसे उगाने में ईमानदार, मेहनती, कर्त्तव्यनिष्ठ और सेवा भावना से लबालब मेरे जैसे मंत्री, छुटभैये नेता, ठेकेदार, दलाल, सरकारी कर्मी अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं। विकास का घास उगाए जाने से आम लोगों को कम और अप्रत्यक्ष तथा मेरी जैसी तमाम प्रजातियों को ज्यादा और सीधा लाभ पहुंचता है। इसके उगाए जाने से विकास की निरंतरता में कोई बाधा नहीं आती। चूंकि विकास एक निरंतर प्रक्रिया है। इसीलिए तमाम सरकारें विकास का घास उगाने में सदैव व्यस्त और मस्त रहती हैं। फिर चाहे इसके लिए उधार का घी ही क्यों न खाना पड़े।’’ इतना सुनने के बाद मैं निहाल होकर पंडित जी के श्रीचरणों में लोटने लगा था, लेकिन वह अभी भी अपने नेत्र मूंदे विकास के घास का इतिहास और उसकी महत्ता के बारे में बताने के लिए जाने किस लोक में विचरण किए जा रहे थे।


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