व्यवस्था में साहस

By: Feb 14th, 2020 12:05 am

व्यवस्था में खुद को तसदीक करने का साहस अगर सामर्थ्य बन जाए तो दिवाकर शर्मा जैसे पुलिस अधिकारी का मिजाज महसूस किया जाएगा। प्रशासन को नजदीक से देखने वाले मानेंगे कि राजनीतिक क्षरण के बावजूद कुछ प्रशासनिक चरित्र परवान चढ़ते हैं। बिलासपुर में ऊना से ट्रांसफर होकर आए एसपी दिवाकर शर्मा के पैमाने न लड़खड़ाए और न ही कम हुए, बल्कि पंजाब सीमा से सटे पुलिस थाना कोट के एसएचओ को इसलिए सस्पेंड होना पड़ा, क्योंकि उनके हवाले से पिछले डेढ़  सालों में एनपीएस का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ। इससे पूर्व बतौर ऊना एसपी गगरेट के कार्यकारी थाना प्रभारी के साथ तीन पुलिस कर्मी सस्पेंड करके दिवाकर शर्मा ने मोटरसाइकिल सवार की मौत पर विभागीय लापरवाही को दोषी माना था। इसी तरह अवैध खनन और पुलिस चौकसी के निकम्मे हालात पर दिवाकर शर्मा की कार्रवाइयों का विशेष उल्लेख विभाग को सम्मानित करता है। हम इसे विभाग की एक छोटी सी परिपाटी में देखकर संतुष्ट हो सकते हैं या ऐसे उदाहरणों का ही सफाया करने का फरमान ढूंढते हैं। क्या कानून की फेहरिस्त में व्यवस्था इतनी नाकारा है कि जवाबदेही तय नहीं हो सकती या जब कोई दिवाकर सरीखा अधिकारी ऐसा तय करता है तो वह आंख की किरकिरी बन जाता है। अपेक्षाएं केवल पुलिस महकमे से ही नहीं, बल्कि हर दफ्तर के शिखर पर बैठे अधिकारियों से हैं कि वे कार्य संस्कृति को जवाबदेह बनाएं। एक छोटा सा उदाहरण कांगड़ा पुलिस का ही दें, तो मालूम होगा कि धर्मशाला के प्रमुख बाजार में वन-वे ट्रैफिक व्यवस्था को एक विधायक की घुड़की ने मिट्टी में मिला दिया। ऐसा क्यों हुआ कि एसपी कांगड़ा का रुतबा पिघल गया या वह सियासी दबाव में आ गए। प्रदेशभर में देखें तो कहीं कोई एसडीएम स्तर का अधिकारी भी सड़कों से अवैध कब्जे हटाने में सक्षम हो जाता है या कोई डाक्टर अपने अस्पताल को चला देता है। ऐसे प्रिंसीपल भी होंगे जो कालेज में शिक्षा की परिभाषा बदल देते हैं, वरना अधिकांश शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक चटाइयां बिछाकर मुखिया अपने दायित्व में राजनीतिक अतिथियों के सत्कार का दायित्व ओढ़ लेते हैं। ऐसे कितने ही राजस्व अधिकारी मिल जाएंगे जो अपने सियासी आका के लिए निजी भूमि बैंक विकसित करते रहते हैं, जबकि जनता की फाइलों को दीमक चाट जाती है। दरअसल दीमक से जनता का सामना हर दरबार और हर कामकाज से है। न लक्ष्य, न इबारत और न ही जवाबदेही तय होती है, लिहाजा सरकारी मशीनरी का दस्तूर निरंकुश हो चला है। सरकारी क्षेत्र का प्रशासनिक ढांचा तो दिखाई देता है, लेकिन प्रबंधन के इंतजाम नहीं होते। प्रदेश सरकार चाहे तो चयनित बीस स्कूल, बीस कालेज और बीस अस्पतालों का व्यावसायिक प्रबंधन करके यह देख सकती है कि अब ऐसे प्रयोग की जरूरत बढ़ रही है। यानी चयनित संस्थानों का नेतृत्व अनुभवी एमबीए के तहत चलाया जाए और संस्थान अपनी जरूरतों के मुताबिक वर्तमान सरकारी क्षेत्र से ही अध्यापक व डाक्टर चुने। इनकी सेवा शर्तें, स्थानांतरण नियम तथा जवाबदेही का लेखाजोखा संस्थान की परिधि में अर्जित विशिष्टता के आधार पर निश्चित किया जाए। कहना न होगा कि सरकारी क्षेत्र में कामकाज के मानदंड पूरी तरह से सियासी हो गए हैं, जबकि व्यक्तिगत साहस भी अधिकारी व कर्मचारियों की कर्मठता को बरकरार नहीं रख पाता। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सही व्यक्ति न तो सही स्थान पर है और न ही सही को सही ढंग से काम करने दिया जाता है। रोजाना स्थानांतरण आदेशों के हाव भाव में यह स्पष्ट है कि कहीं सिफारिश ही कार्य संस्कृति चुन रही है, तो कहीं शिकायती पूर्वाग्रह किसी क्षमतावान को परिदृश्य से हटा रहा है। सरकारी क्षेत्र की दक्षता का मूल्यांकन अगर निष्पक्षता व जनता के फीडबैक पर आधारित हो जाए, तो दिवाकर शर्मा सरीखे अधिकारियों की कार्यशैली का विस्तार संभव है। बेशक इस तरह के अधिकारियों के उदाहरण को अगर सराहा जाता है, तो इसके विरोध में भी माहौल बनाने की कोशिशें रहती हैं। ऐसे में सुशासन की परिधि को सशक्त करने के लिए यह आवश्यक है कि सरकारी कार्य संस्कृति को अनुशासित व जवाबदेह बनाने के लिए कर्मठ अधिकारियों के अधिकारों की सुरक्षा चाहिए। 


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