हमारे ऋषि-मुनि, भागः 27 : महर्षि दधीचि

By: Feb 15th, 2020 12:18 am

महर्षि दधीचि के पिता का नाम अधर्वा ऋषि था, जो ब्रह्माजी के पुत्र थे। दधीचि ऋषि को मनाही थी कि वह अश्विनी कुमारों को किसी भी अवस्था में ब्रह्मविद्या का उपदेश नहीं दें। यह आदेश देवराज इंद्र का था। वह नहीं चाहते कि उनकी गद्दी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई खतरा बने। मगर जब अश्विनी कुमारों ने प्रार्थना की,तो दधीचि ऋषि सहर्ष मान गए। उन्होंने इन्हें उपदेश भी दे दिया। इस बात की सूचना इंद्रदेव के गुप्तचरों के माध्यम से पहुंच गई। इंद्रदेव खड़ग लेकर आए और महर्षि दधीचि का मस्तक उतार दिया। अश्विनीकुमार भी चुप बैठने वाले नहीं थे। उन्होंने घोड़े का सिर लगाकर,दधीचि ऋषि को जीवित रख लिया। उसी दिन से दधीचि ऋषि का  एक और नाम अश्वशिरा पड़ गया। वह समय भी आया जब दधीचि ऋषि ने अपने मस्तक को काट देने वाले इंद्र को अपने शरीर की रीढ़ की हड्डी प्रदान कर उनकी रक्षा की।

शिवजी का पिनाक धनुष

देवराज इंद्र को अपनी रीढ़ की हड्डी दे दी थी। मृत शरीर से बची हड्डियों से एक धनुष तैयार किया गया, जो भगवान शिवजी के काम आया। इसी धनुष का नाम पड़ा पिनाक धनुष।

जब वृत्रासुर का वध बनी समस्या

देवताओं के गुरु हैं बृहस्पति जी। एक दिन अपने पद के मद में देवराज इंद्र ने अपने गुरु को अपमानित कर दिया था। वह देवराज इंद्र की सभा को छोड़कर कहीं जा छिपे। जब नशा उतरा इंद्र ने अपनी भूल स्वीकार कर गुरु बृहस्पति की तलाश शुरू कर दी। यज्ञ आदि का अनुष्ठान कराने वाला कोई नहीं रहा। जब गुरु नहीं मिले, तो ब्रह्माजी की समाप्ति पाकर इंद्र ने फिलहाल त्वष्टा ऋषि के पुत्र विश्वरूप को अपना पुरोहित बना लिया। विश्वरूप की माता असुर परिवार से थी। अतः इस नए पुरोहित का झुकाव असुरों की ओर भी रहा। कभी-कभी उनको यज्ञ भाग भी पहुंचा देते। देवराज इंद्र को पता चला, तो उन्होंने क्रोध में आकर अपने नए पुरोहित का वध कर डाला। इससे उनको ब्रह्म हत्या का पाप लगा। जैसे-तैसे पुराने पुरोहित बृहस्पति को इंद्र ने मना लिया। उन्होंने यज्ञ करके ब्रह्महत्या के पाप को पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों में बांटा और इंद्र को स्वर्ग का अधिकारी बना दिया। जब विश्वरूप के पिता त्वष्टा ऋषि को पता चला, तो उन्होंने अपने पराक्रम से वृत्रासुर को उत्पन्न किया। इसका काम था स्वर्ग लोक पर काबू पाना तथा इंद्र आदि देवताओं का वध करना। भयभीत इंद्र देव ने ब्रह्माजी से रास्ता पूछा। ब्रह्माजी ने कहा,आपकी सहायता केवल दधीचि ऋषि ही कर सकते हैं। उनकी रीढ़ की हड्डी से बना वज्र ही वृत्रासुर का वध कर सकता है। इंद्रदेव तथा अन्य देवताओं ने दधीचि के आश्रम में जाकर उनको प्रसन्न कर उनसे उनके शरीर की रीढ़ की हड्डी मांग ली। वह तैयार हो गए। उन्हीं की इच्छा पर सभी तीर्थों को आश्रम में बुलाया गया। महर्षि दधीचि ने स्नान आचमन किया। समाधि में बैठ गए। ब्रह्महत्या न लगे इसलिए एक जंगली गाय बुलाकर,उसे दधीचि को अपनी कांटों भरी जीभ से चाटने का आदेश दिया। वह तब तक चाटती रही, जब तक केवल हड्डियां रह गईं। दधीचि ऋषि की रीढ़ की हड्डी से जो वज्र बना, उसीसे वृत्रासुर पर आक्रमण किया गया और उसे मारकर असुरों से स्वर्गलोक को भयरहित कर दिया गया। संतो की यह सबसे बड़ी उदारता का उदाहरण है।

                – सुदर्शन भाटिया 


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