हमारे कान बिकाऊ हैं

By: Feb 24th, 2020 12:05 am

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

वास्तव में चीखना ही लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का इजहार जैसा है और यह ऐसा स्वाभाविक गुण है जिसकी बदौलत कोई भी शख्स वजन में भारी वजन में हो जाता है। भारी जुबान इस समय अपने युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है, इसलिए जो बोलने के बाद भी नहीं सोचते देश की चर्चाओं में रहते हैं। जिसने सोच कर बोला, समझो वह दुनिया में खोटा सिक्का बनकर ही रहा। कभी अपनी चीख को सुनने के लिए चीखो और तब तक इसका असर देखो, जब तक किसी के कान पक न जाएं। कानों से याद आया कि अब हमारी सारी आचार संहिता इन्हीं पर निर्भर है। दरअसल ‘कान खरीदने’ के सौदागर ही इस वक्त की लोकप्रियता के वंशज हैं। यह हमारे कान का दोष नहीं, बल्कि हमारे सुनने का मकसद है कि हम बिके हुए ही किसी को सुन सकते हैं। सुनना दरअसल बिकना है, जबकि सुनाना कान को खरीदना है। आप माने या न मानें बुद्धिजीवियों का कान किसी भी सूरत बिकता नहीं, इसलिए जब कोई कवि अपनी रचनाएं सुनाता है तो सुनने वाला यकीनन बुद्धिजीवी नहीं दिखाई देता। आज के भारत में चारों तरफ की चीखोपुकार के बीच एक बुद्धिजीवी ही तो हैं, जो न सुनने की काबिलीयत और न ही सुनाने का सामर्थ्य रखते हैं। हमारे कान तो इतनी बार बिक चुके हैं कि अब पता नहीं चलता कि कब कांग्रेस ने क्या कहा था या अब भाजपा क्या सुनाना चाहती है। कभी -कभी तो लगता है कि हर चैनल की बहस में अगर कुछ बिकता है, तो अपने कान तो दो कौड़ी के भी नहीं रहे। हर कोई इन्हीं कानों को ऐंठ कर देश चला रहा है, देश की हर समस्या हमें ही सुना रहा है। कल तो गजब हो गया जब विपक्षी नेता ने हमारे कान लगभग भरते हुए कहा कि अपनी इस हालत के लिए नोटबंदी और जीएसटी जिम्मेदार है। हद हो गई हमारी हालत के जिम्मेदार असल में ये कान हैं, जो हर किसी को सुन लेते हैं। कभी शाहीन बाग को चीखते सुनते हैं, तो कभी संसद में सुन-सुन कर भी समझ नहीं पाते कि देश किसको क्यों सुन रहा है। जिसने जो सुनाया इन कानों की बदौलत हमने सुना। दरअसल हमारी असफलता की वजह दिमाग नहीं,कान हैं। मां-बाप ने कहा शिक्षक की सुनो, तो स्कूल में जो सुना शिक्षा के काबिल न रहे। शिक्षा ने जो सुनाया,नौकरी के मुताबिक न हो सके। नौकरी ने सुनाया, तो काम के काबिल न रहे। ऐसे में सुने तो सही नहीं लगता, न सुनें तो हिंदोस्तान मेें हमारे जैसा नागरिक जी नहीं सकता। अब तो सुनने की आदत सी हो गई है। घर से सुन कर निकलने में जो बरकत है,उसी का यह असर है कि शोर में भी हिस्से की आवाजें हमारे कान खरीद लेती हैं। देश में जो नहीं हुआ या नहीं हो रहा, उसके लिए भी हमारे कान ही दोषी हैं। काश ये बहरे हो जाते,ताकि बोलने वालों का शोर हमारे नजदीक न आता। अब तो हर समय-हर दिन, कभी देश की खातिर,कभी देशभक्ति की खातिर और अब तो राष्ट्रवाद की खातिर भी हमारे दो कान हमेशा तत्पर रहते हैं। कभी तो इनके बिकने पर पाबंदी लगेगी।


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