इस कर्फ्यू में जीना सीखें

By: Mar 24th, 2020 12:05 am

बेशक रविवार का जनता कर्फ्यू अपनी संवेदना और सहमति में राष्ट्रीय आदर्श ऊंचे कर गया, लेकिन अब दैनिक प्रक्रिया की ऐसी तालाबंदी को साधना होगा। यह केवल कोरोना के इर्द-गिर्द बचाव की परिस्थिति नहीं, बल्कि स्वास्थ्य व आर्थिकी की चुनौतियों के बीच जीवन की अनिवार्यता है। हिमाचल जैसे पर्यटन राज्य के लिए यह कड़ी परीक्षा है और आधारभूत तैयारियों का कर्मठ मुआयना भी। किसी भी राज्य की तुलना में सबसे अधिक मेडिकल कालेजों पर व्यय करने वाले हिमाचल की अब चिकित्सकीय सेवाओं की तुलना होगी। कर्फ्यू में जिंदगी का एहसास निजी व्यवहार का संयम तो है, लेकिन कानून व्यवस्था के पहरे बहरे और न ही गूंगे हो सकते हैं। यह ऐसा कर्फ्यू नहीं कि लाठी भांजी जाए या पुलिस की ड्यूटी का कठोरतम इस्तेमाल किया जाए। आखिर लोग ही खुद पर पाबंदियां लगा कर सहयोग कर रहे हैं, तो उन्हें भी प्रशासनिक दिशानिर्देश किसी पात्र की तरह दिखाई देने चाहिएं। कोरोना के खिलाफ हर पहल को आदत में बदलने के लिए सामाजिक स्वीकृति स्वतः स्फूर्त है, अतः ऐसे नाके साबित न हों जो जनता की आवश्यकताओं को न समझें। पुलिस व्यवस्था के साथ प्रशासनिक अधिकारी का होना यह सुनिश्चित करेगा कि सड़क पर आया कोई व्यक्ति किस जरूरत या मुसीबत में फंसा है। इसी तरह विभिन्न मोबाइल सेवाओं के जरिए चिकित्सकीय जांच, लोगों के फीडबैक तथा आवश्यक जागरूकता का निष्पादन करना होगा। व्यापारिक प्रतिष्ठानों व दुकानदारों को प्रेरित किया जाए कि वह नागरिक वस्तुओं की आपूर्ति को घर द्वार तक पहुंचाएं। इसके लिए सरकार वाहनों की व्यवस्था तथा ऐसी आपूर्ति की निगरानी व्यवस्था कायम करे। कोरोना के खिलाफ जंग तभी लड़ी जाएगी, जब जीने के अधिकार को सरलता व सामुदायिक अनिवार्यता से जोड़ा जाए। जनता कुछ हद तक समुदाय के रूप में अवश्य सोच रही है, लेकिन सरकार को अपनी व्यवस्था में समुदाय के साथ तालमेल की जरूरत है। मौजूदा परिस्थिति में आवश्यक सेवाओं, सूचनाओं व निर्देशों के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए अत्यंत चौकसी को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे में सोशल मीडिया पर बांटी जा रही झूठी जानकारियों पर त्वरित कार्रवाई की मांग की जाती है। कर्फ्यू में रह कर ही हम वायरस को घूमने से रोक सकते हैं, अतः अनावश्यक रूप से सड़क पर आने से खुद को रोकना होगा। यह इसलिए भी कि भारत अपने आकार, आबादी तथा चिकित्सा के कमजोर प्रबंधों के कारण अति संवेदनशील है और अगर जनता इस दौर में खुद को सीमित कर लेती है, तो चंद दिनों के प्रतिबंध सदियों की दिशा तय करेंगे। फिलहाल देश में सवा अठारह हजार व्यक्तियों के पीछे अस्पताल का एक बिस्तर उपलब्ध है और 11600 लोगों की देखरेख के लिए महज एक डाक्टर है। ऐसे में अगर आशंकाएं बढ़ती हैं, तो परेशानियां दामन से बाहर हो जाएंगी। कोरोना प्रभावितों को पृथक करने के लिए मात्र 84 हजार बेड तथा क्वारनटाइन के 36 हजार बिस्तर होना, सबसे बड़ी चुनौती है। देश की जनता अगर घर के भीतर रहेगी, तो सरकारों को इस दिशा में क्षमता विकास का अवसर मिलेगा। विडंबना यह भी है कि मीडिया के भीतर आज भी चुटकियां परोसी जा रही हैं और हम खुश हैं कि पड़ोसी पाकिस्तान की मजबूरियां हमसे कहीं अधिक घातक हैं। कोरोना ऐसे भ्रमों से कहीं अलग ऐसा मसला है, जिसे हर राष्ट्र को अपने अहम व वहम से हटकर ही काबू पाना है। यह दौर न तो व्यक्तिगत अहंकार, न समृद्धि, न ख्याति, न पद, न अधिकार और न प्रतिस्पर्धा का है। अतः व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को भूलकर ऐसे आदर्श कायम करें, जो जनता के काम आएं। कर्फ्यू के दौरान चारित्रिक उत्थान का अवसर भी मिल रहा है। ऐसे कई उदाहरण सामने आ रहे हैं, जहां मामूली लोग भी मुफ्त में मास्क या सेनेटाइजर बांट रहे हैं, अतः हर व्यक्ति इस दौरान तरह-तरह से अपनी भूमिका निभा सकता है। हम अगर अपनी जरूरतों को ही आधा कर लें, तो अपने हिस्से की भूमिका में किसी अन्य नागरिक की सहायता कर पाएंगे। हिमाचल में सरकारी पक्ष को इस समय की कठोर परीक्षा से गुजरना है, लेकिन गौर रहे कि यह कानून व्यवस्था का कर्फ्यू नहीं, बल्कि नागरिक सुरक्षा का इंतजाम है। इस दौर के मानवीय पहलुओं की रक्षा का आश्वासन भी तो प्रशासन को ही देना है।


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