कफ्र्यू की तहजीब

By: Mar 26th, 2020 12:05 am

यह न तो सामान्य परिस्थिति है और न ही सामान्य प्रकार का कफ्र्यू। यह अनुशासित रहने की बंदिश है, तो लंबे समय तक पाबंदी में जीने का अभ्यास भी। यह एक अदृश्य वायरस से लडऩे की मुहिम है, तो स्वास्थ्य के सिद्धांत व नियमन भी। यह अफवाहों से बचने की ताकीद है, तो सूचना प्रधान मीडिया की भूमिका का अति कठिन दौर भी। आरंभिक कफ्र्यू के दौर में कुछ खट्टे- मीठे अनुभव होंगे, लेकिन इस वक्त मानवता की लड़ाई के पैमाने हमारे हर हथियार और हर अहंकार को ठंडा कर देते हैं। बेशक पहले ही दिन मीडिया के कई कर्मी पुलिस के सामने अपमानित हुए और कई जगह व्यवस्था ने अनुचित तौर पर सीमाएं लांघी, लेकिन इस एहसास को अपने दिमाग पर चढ़ाने के बजाय, यह गौर करें कि हम सूचना को हर सूरत जिंदा रखेंगे ताकि वायरस मरे। हालांकि दिव्य हिमाचल मीडिया समूह के समाचार संपादक संजय अवस्थी के साथ एक सब-इंस्पेक्टर ने व्यावहारिक उच्छृंखलता का परिचय दिया, फिर भी हम पुलिस महकमे या पूरे प्रशासन के साथ सहयोगी की भूमिका में डटे रहेंगे। आग्रह सिर्फ यह है कि अति उत्साह में कुछ ऐसे लोग कहीं एक बड़े लक्ष्य के खिलाफ फील्ड का माहौल खराब न कर दें। आम जनता ने अगर जनता कफ्र्यू को अंगीकार करके एक उदाहरण पेश किया, तो आगामी किस्तों में हर दिन की पाबंदियां भी कट जाएंगी, बशर्ते जनता का संवाद व संवेदना किसी अमर्यादित व अवांछित व्यवहार से चोटिल न हो। यह दंगाग्रस्त इलाकों में घूमती पुलिस की पोशाक नहीं है और न ही सामाजिक विद्वेस से जूझते बल प्रयोग की कोई जरूरत, बल्कि कोरोना को पस्त करने का राष्ट्रीय अनुशासन है। दहशत का एक पक्ष मानवीय , दूसरा प्रशासनिक, तो तीसरा राष्ट्रीय रणनीति का आवरण हो सकता है, लेकिन इन सबके बीच न छड़ी घुमाकर और न ही लाठी भांजकर कुछ हासिल होगा। ऐसे में इक्कीस दिन के लॉकआउट या कफ्र्यू की तहजीब विकसित करने की आवश्यकता है। जनता के समक्ष कुछ अपरिहार्य कड़े संदेश  रहेंगे, लेकिन दिनचर्या को गुलाम बना कर इससे हासिल क्या होगा। केंद्र या राज्य सरकारों ने कफ्र्यू  का मार्ग प्रशस्त करके जो एहतियात बरती है, उसी के बीच जिंदगी की जरूरतें भी बटोरी जाएंगी। कफ्र्यू एक निगरानी है ताकि लोग घरों में रहें, लेकिन यह गोली, गाली या बंदूक का साया नहीं। कांगड़ा के परौर और मंडी में दो पत्रकारों के साथ हुआ सलूक जाहिर तौर पर कफ्र्यू को वीभत्स बनाता है। सरकार अगर मीडिया का सहयोग नहीं लेगी, तो मात्र सोशल मीडिया के सहारे सूचनाओं और जानकारी की जवाबदेही नहीं मिलेगी। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मीडिया के साथ-साथ स्वास्थ्य , पुलिस व आवश्यक सेवाओं में लगे सरकारी व गैरसरकारी पक्ष की सराहना की है, तो यही कफ्र्यू की तहजीब है कि हम सभी एक-दूसरे का कम से कम आदर तो करें। हमें उस दूध विक्रेता की हिफाजत करनी है, जो कफ्र्यू के बीच अपने मवेशियों के लिए चारे को ढूंढने निकला होगा। हमें उस मरीज की हिफाजत करनी है, जिसकी दवाई के लिए कोई  खातिरदार बाजार में तलाश के लिए निकला होगा। हमें राशन के लिए बाजार की तरफ निकलना है, लेकिन पिकनिक मनाने की तरह खाने के शौक नहीं पालने हैं। जरूरी नहीं कि हम घर में रेस्तरां सजाएं या अपनी ख्वाहिशों के प्रभाव में कफ्र्यू को भीड़ बनाएं। दूसरी ओर कफ्र्यू की किलेबंदी के बावजूद और पुलिस पहरे के बीच भी जिंदगी के लिए कहीं-कहीं प्रवेश द्वार बने रहने चाहिएं ताकि तमाम पाबंदियों की ताक झांक में मानवीय संवेदना में खलल न पड़े। ये इक्कीस या इससे ज्यादा दिनों का अनूठा सफर है, लिहाजा इसकी तहजीब भी हर दिन बनती रहेगी। फिलहाल एक-दूसरे से कम से कम एक मीटर की दूरी पर रहें, भले ही घर में सभी अपने रहे हों।


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