नैतिक जीवन के ग्रंथ

By: Mar 28th, 2020 12:18 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

स्वामी जी ने भी सहमति प्रकट की। जुलाई महीने के चौथे सप्ताह में स्वामी जी ने शिष्यों और दोस्तो के साथ लंदन से प्रस्थान किया और जेनेवा आ पहुंचे। उन दिनों एक प्रदर्शनी लग रही थी। स्वामी जी ने प्रर्दशनी देखी और एक बैलून में बैठकर आकाश की सैर की। यहां पूरी मंडली सहित एक फोटो भी लिया गया। यहां से कैसल ऑफ चिली और वहां से मांउट ब्लैंक की यात्रा की। स्विटजरलैंड पर्वताचल में सुशोभित झीलों,सरोवरों, हरे-भरे वृक्षों और मनोरम प्रकृतिक दृश्यों को देखते हुए स्वामी जी को हिमालय की उपत्यका का स्मरण हो आया। उनके मन में हिमालय के निकटवर्ती किसी अरण्य में कुटीर बनाकर संसार के कोलाहल से दूर एकांतवास करने की सोई इच्छा जाग उठी। उन्होंने अपने सहकारियों से हिमालय के तपोवनों का मनोहारी चित्र वर्णन करते हुए अपनी मनोकामना प्रकट की। उन्होंने कहा मेरी हार्दिक इच्छा है कि हिमालय में एक आश्रम स्थापित करके बाकी जीवन तप और ध्यान में व्यतीत करूं। आश्रम में देशी-विदेशी शिष्य एक साथ रहकर कर्मयोग में दीक्षत होंगे और एक श्रम दल पश्चिम में वेदांत को प्रचार करेगा, दूसरा दल भारत को अपना कार्यक्षेत्र बनाएगा। इसका अनुमोदन सभी सहयोगियों ने मिलकर किया। आल्पस पर्वत के शिखर पर बैठकर स्वामी जी ने शिष्यों समेत जो संकल्प किया था, वह बाद में ईश्वर कृपा से कार्यरूप में परिणत हुआ। कुछ अन्य दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करके सारा दल दो सप्ताह के लिए एक पहाड़ी गांव में जा ठहरा। चारों तरफ बर्फ से ढकी पहाडि़यों से घिरे इस गांव में स्वामी जी की वृत्तियां अंतर्मुखी हो उठीं। इन दिनों जागतिक कार्यकलाप की तरफ से उनका कोई ध्यान नहीं था। ज्यादा बोलने चालने में उनकी रुचि नहीं थी। शिष्यों ने उनकी इस मानसिक स्थिति को देखकर उन्हें पूर्ण एकांत की सुविधा दे दी। वे ज्यादातर समय ध्यान में मगन रहते। इस पूर्ण विश्राम और ध्यान धारण से उनमें एक नई स्फूर्ति का जन्म हुआ और सारी क्लांति दूर हो गई। जर्मनी के कील नगरस्थ विश्वविद्यालय के संस्कृति विभागीय प्रधानाध्यापक पॉल डॉयल ने स्वामी जी को आमंत्रित करने के लिए एक पत्र भेजा। वह पत्र लंदन के पते पर भेजा गया था।

वहां से यहां पहुंचा था। स्वामी जी ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया था। मार्ग में पड़ने वाले ऐतिहासिक स्थानों को देखकर कील नगर पहुंचे। प्राध्यापक डॉयल ने उन्हें अपने घर में आमंत्रित किया और वेद,उपनिषद तथा वेदांत के संबंध में अपने श्रद्धापूर्ण उद्गार व्यक्त किए थे। ये प्राध्यापक मानते थे कि उपयुक्त ग्रंथ सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रतिभा का निर्देशन करने वाले तथा देवतुल्य मानव की प्रतिभा का निर्माण करने वाले हैं। वे इन्हें नैतिक जीवन के ग्रंथ भी मानते हैं। उन्होंने स्वरचित एक ग्रंथ के कुछ अंश स्वामी जी को भी दिखाए। रायल एशियाटिक सोसायटी की बंबई शाखा में 1883 ई. को प्राध्यापक डॉयसन ने वेदांत के संबंध में जो कुछ कहा था,उसकी अंतिम पंक्तियां उन्होंने स्वामी जी को पढ़कर सुनाई।  

                            – क्रमशः

 


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