पाश कभी नहीं मरते…

By: Mar 22nd, 2020 12:06 am

पुण्यतिथि पर विशेष

अमरीक सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

क्रांतिकारी कवि पाश

पाश न महज पंजाबी कविता बल्कि समूची भारतीय कविता के लिए एक जरूरी नाम हैं, क्योंकि उनके योगदान के उल्लेख के बिना भारतीय साहित्य और समाज के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं बनता है। उनका जीवन और कला दोनों महान हैं। उन्हें क्रांति का कवि कहा जाता है। जिस तरह की जीवनधारा पाश की रही, उसके बीच से फूटने वाली रचनाशीलता में उनका काम बेजोड़ है क्योंकि उन जैसा सूक्ष्म कलाबोध दुर्लभ है। उनका अपना सौंदर्यशास्त्र है, जो टफ  तो है पर रफ  नहीं। वहां गुस्सा, उबाल, नफरत, प्रोटेस्ट और खूंरेजी तो है ही, गूंजें-अनुगूंजें भी हैं। सपाट सच हैं, पर सदा सपाटबयानी नहीं। पाश यकीनन एक प्रतीक हैं और एक शहीद के तौर पर उनके किस्से पीढ़ी-दर-पीढ़ी दिमागों में टंके हुए हैं। जब वह जीवित थे, तब भी, कई अर्थों में दूसरों के लिए ही थे। अदब में आसमां सरीखा कद रखने वाले पाश धरा के कवि थे। वह पंजाबी के कवि थे, लेकिन व्यापक हिंदी समाज उन्हें अपना मानता है। बल्कि तमाम भारतीय भाषाओं में उन्हें खूब पढ़ा जाता है। विदेशी भाषाओं में भी। ऐसी जनप्रियता किसी दूसरे पंजाबी लेखक के हिस्से नहीं आई। हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष डा. नामवर सिंह और मैनेजर पांडे तक ने उन पर उल्लेखनीय लिखा है। हिंदी की बेहद स्तरीय पत्रिका ‘पहल’ ने पूरे ऐहतराम के साथ उनकी कविताएं तब छापी थीं जब वह किशोरावस्था से युवावस्था के बीच थे। उनकी हत्या के बाद भी ‘पहल’ ने उन पर विशेष खंड प्रकाशित किया। वरिष्ठ हिंदी कवि मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, राजेश जोशी, केदारनाथ सिंह, सौमित्र मोहन, अरुण कमल, ऋतुराज, वीरेन डंगवाल, कुमार विकल, उदय प्रकाश, लीलाधर जगूड़ी और गिरधर राठी आदि पाश की कविता के गहरे प्रशंसकों में शुमार रहे।

आलोक धन्वा को हिंदी कविता का अप्रीतम हस्ताक्षर माना जाता है। वह पाश के करीबी दोस्त थे। उनसे मिलने बिहार से पंजाब, पाश के गांव उग्गी (जिला जालंधर) भी आए थे। तब पंजाब में नक्सली लहर का जोर था और उनकी गिरफ्तारी होते-होते बची। प्रख्यात कथाकार अरुण प्रकाश और गीतकार बृजमोहन पाश की हत्या के बाद रखे गए श्रद्धांजलि समागम में शिरकत करने के लिए विशेष रूप से देश भगत यादगार हाल जालंधर आए थे। पाश ने 15 साल की किशोरवय उम्र में परिपक्व कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। उनमें क्रांति की छाप थी, सो उन्हें क्रांतिकारी कवि कहा जाने लगा। पहले-पहल यह खिताब उन्हें महान (नुक्कड़) नाटककार गुरशरण सिंह ने दिया था। 20 साल की उम्र में उनका पहला संग्रह ‘लौह कथा’ प्रकाशित हुआ। यह कविता संग्रह आज भी पंजाबी में सबसे ज्यादा बिकने वाली कविता पुस्तक है। ‘कागज के कातिलों’ के लिए यह मिसाल एक खास सबक होनी चाहिए कि पाश ने अपने तईं अपना कोई भी संग्रह कभी भी किसी ‘स्थापित’ आलोचक को नहीं भेजा। जबकि पंजाबी के तमाम आलोचक बहुचर्चा के बाद उनकी कविता का नोटिस लेने को मजबूर हुए। बहुतेरों ने उनकी कविता का लोहा माना और कुछ ने नकारा। प्रशंसा-आलोचना-निंदा से पाश सदा बेपरवाह रहे। उनकी अध्ययन पद्धति गजब की थी। अपने खेत को खोदकर (बेसमेंट में) उन्होंने अपनी लाइब्रेरी बनाई थी, जहां दुनिया भर की किताबें थीं। नक्सली लहर के दौरान, 1969 में जब उन्हें झूठे आरोपों के साथ गिरफ्तार करके जेल भेजा गया, तब इस किताबों के खजाने को पुलिस ने ‘सुबूत’ के बहाने ‘लूट’ लिया। पाश रिहा हुए, लेकिन जब्ती का शिकार बनीं किताबें उन्हें कभी वापस नहीं मिलीं। पुलिसिया यातना का उन्हें इतना मलाल नहीं रहा जितना इस बात का। वह खुद पढ़ने के लिए कॉलेज नहीं गए, लेकिन उनका कविता संग्रह एमए में पढ़ाया गया। पाश की एक काव्यपंक्ति दुनिया भर में मशहूर है : ‘सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना…!’ उनका मानना था कि पहले बेहतर दुनिया सपनों में आएगी और फिर यही सपने साकार होंगे, लेकिन जरूरी लड़ाई अथवा संघर्ष के साथ! पंजाबी क्या, किसी भी भाषा में कविता का ऐसा सौंदर्यशास्त्रीय मुहावरा दुर्लभतम है। इसे लिखकर भी पाश ‘महानता’ की श्रेणी को छू गए। विचारधारात्मक तौर पर वह हर किस्म की कट्टरता, अंधविश्वास और मूलवाद के खिलाफ  थे। पंजाब में फिरकापरस्त आतंकवाद की काली आंधी आई तो उन्होंने वैचारिक लेखन भी किया। वह अपना दिमाग और शरीर इसलिए बचाना चाहते थे कि इन तमाम अलामतों का बादलील विरोध कर सकें। उनका मानना था कि अगर मस्तिष्क रहेगा तो बहुत कुछ संभव होगा। वह दुनिया बनेगी जिसकी दरकार है बेहतर जीवन के लिए। जीवन पर मंडराते खतरे के बाद वह विदेश चले गए। अपना अभियान जारी रखा। अपनी धरती, अपना वतन बार-बार खींचता था। कुछ दिनों के लिए आ जाते थे। 23 मार्च, 1988 के दिन वह अपने गांव में थे कि खालिस्तानी आतंकियों ने घात लगाकर उन्हें कत्ल कर दिया। कातिल नहीं जानते थे कि जिस्म कत्ल होने से फलसफा और लफ्ज़ कत्ल नहीं होते। 23 मार्च का दिन शहीद भगत सिंह के लिए भी जाना जाता है और आज पाश के लिए भी। न भगत सिंह मरे और न पाश! पाश ने कविता ‘अब मैं विदा लेता हूं’ में कहा है : ‘मुझे जीने की बहुत चाह थी, कि मैं गले-गले तक जिंदगी में डूब जाना चाहता था, मेरे हिस्से की जिंदगी भी जी लेना मेरे दोस्त…!’ उनके हिस्से की जिंदगी बहुतेरे लोग जी रहे हैं। प्रसंगवश, कई भारतीय भाषाओं में इस कवि की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह प्रकाशित हैं। हिंदी में सबसे मकबूल संग्रह ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App