फूलों की खेती पर कोरोना की मार, बागों में सड़ने लगे लाखों के फूल दुखी बागबान बोले, हमें बचाए सरकार

By: Mar 22nd, 2020 12:05 am

डा. प्रवीन

स्पेसलिस्ट आईजीएमसी

एक तरह का ड्रॉपलेट इन्फेक् शन

दूसरी ओर आईजीएमसी के विशेषज्ञ डा प्रवीण कहते हैं कि कोरोना एक तरह का ड्रॉपलेट इन्फेक् शन है। यह संभव है कि बाहर से आने वाली चीजों में संक्रमण आ जाए। डा प्रवीण ने किसान बागबानों से आग्रह किया है कि वे कोरोना से डरें नहीं,बल्कि साफ सफाई का विशेष ध्यान रखें…

वायरस के डर से हिमाचल के मंदिरों के कपाट बंद हो गए हैं। शक्तिपीठ चिंतपूणी, ज्वालामुखी, बालासुंदरी, श्री बज्रेश्वरी और चामुंडा जी के अलावा बाबा बालकनाथ में सार्वजनिक दर्शनों पर रोक लगने से कारोबार पर बुरा असर पड़ा है। इसके अलावा खासकर फूलों का कारोबार पूरी तरह चौपट हो गया है। प्रदेश में सैकड़ों पुष्प उत्पादक इस उम्मीद में चैत्र माह का इंतजार करते हैं कि वे  साल भर के लिए परिवार के गुजारे लायक पैसे कमा लें, लेकिन इस बार मंदिर बंद होने से फूल बागों में सड़ने लगे हैं। अपनी माटी टीम ने अग्रणी किसान बलवीर सैणी के खेतों का जायजा लिया। सैणी ने सात कनाल में फूल लगाए थे, जिन पर अब तक वह डेढ़ लाख खर्च कर चुके हैं। अब जब फसल तैयार है, तो डिमांड जीरो हो गई है। सैणी कहते हैं कि उनको लाखों का नुकसान उठाना पड़ रहा है। सैणी की तरह प्रदेश में सैकड़ों ऐसे बागबान हैं, जिनके कारोबार को कोरोना का डर खत्म करने पर अमादा है। कई बागबानों ने प्रदेश की जयराम सरकार को सुझाव दिया है कि वह मुश्किल वक्त में बाहर से आने वाले फूलों की सप्लाई रोककर प्रदेश के ही फूलों को ही लिया जाए। इसके दो फायदे होंगे,एक तो प्रदेश के बागबानों को उनकी उपज के सही दाम मिलेंगे और दूसरा बाहर से आने वाले संक्रमण से भी बचा जा सकेगा।  गौर रहे कि चैत्र नवरात्र में एक दिन में ही करीब 50 लाख रुपए के फूलों की खपत हो जाती है। इस गंभीर मसले पर अपनी माटी टीम ने हिमाचल व्यापार मंडल के प्रधान सोमेश गोयल से बात की। इस सबसे चिंतित गोयल ने कहा कि इससे किसान,बागबानों से लेकर छोटे-बड़े कारोबार पर बुरा असर पड़ा है। जयराम सरकार को चाहिए कि वह कारोबारियों को इस संकट से निकाले।

रिपोर्ट दीपिका शर्मा,मुनिंद्र अरोड़ा, राकेश कथूरिया

जीरो बजट खेती यानी सुखद भविष्य

इंटरव्यू

सुभाष पालेकर

भारत में शून्य लागत आध्यात्मिक कृषि तकनीक के शोध, विकास एवं प्रसार आंदोलन के प्रणेता श्री सुभाष पालेकर पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल श्री आचार्य देवव्रत के विशेष आग्रह पर हिमाचल प्रदेश चौधरी सरवण कुमार कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर में ‘जीरो बजट प्राकृतिक खेती’ पर आयोजित चार दिवसीय कार्यशाला के संचालन के लिए पधारे। काबिलेगौर है कि रासायनिक कृषि से संत्रस्त किसानों, बागबानों और आम लोगों ने अभी जैविक खेती की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखना आरंभ ही किया था, ऐसे में श्री पालेकर जीरो बजट आध्यात्मिक कृषि की नई धारणा के सफल परीक्षण के साथ देश के सामने आए। ‘समाज-धर्म’ के लिए सूचना एवं जन संपर्क विभाग, धर्मशाला के क्षेत्रीय निदेशक श्री अजय पाराशर ने उनसे शून्य बजट पर आधारित आध्यात्मिक कृषि से जुड़े तमाम मुद्दों पर लंबी बातचीत की। पेश हैं पालमपुर में उनसे किए गए साक्षात्कार के महत्त्वपूर्ण अंशः-

आधुनिक कृषि पद्धति या रासायनिक खेती के बाद कारपोरेट वर्ल्ड अब जैविक खेती की बात कर रहा है, इसके मध्य आप बात कर रहे हैं ऋषि खेती या प्राकृतिक कृषि की। इन तमाम संदर्भों या धारणाओं के बीच आप अपने आपको किस तरीके से तर्कसंगत पाते हैं? आप लोगों को किस प्रकार आधुनिक कृषि पद्धति और जैविक खेती से प्राकृतिक खेती की ओर लेकर आएंगे?

पालेकर: पिछले कुछ वर्षों में हमारे समक्ष दो बातें प्रमुखता से उभर कर सामने आई हैं। खाद्य सुरक्षा एक बहुत बड़ी वैश्विक समस्या के रूप में उभर कर सामने आई है। ग्लोबल वार्मिंग और क्लाईमेट चेंज भी महत्त्वपूर्ण वैश्विक समस्याएं हैं। डायबिटीज, हार्ट अटैक, कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। भारत ही नहीं, पूरे विश्व भर में किसान आत्म हत्याएं कर रहे हैं। देहातों से शहरों की तरफ युवाओं का स्थानांतरण तेज गति से हो रहा है। यह सारी परिस्थितियां हम पर दबाव डाल कर, सोचने पर मजबूर कर रही हैं, जो व्यवस्था हम अब तक ढो रहे थे या चला रहे हैं, क्या उसको आगे बढ़ाना ठीक रहेगा? अगर नहीं तो, उसके विकल्प क्या होंगे?

रासायनिक खेती ने जो समस्याएं खड़ी कीं, पूरी दुनिया में उसका हल जैविक खेती के रूप में सामने आया, लेकिन जिस विश्वव्यापी शोषणकारी महाव्यवस्था ने हमारे देश ही नहीं, पूरी दुनिया में हरित क्रांति की टेक्नोलॉजी विकसित की थी, जैविक कृषि के पीछे भी वही काम कर रही है। हमारा उद्देश्य था-खाद्यान्नों का स्वावलंबन, लेकिन जिन दोनों कृषि पद्धतियों को हमारे देश में भेजा गया, उससे उसी का स्वावलंबन हुआ। उनके दो प्रमुख एजेंडे थे-हमारे देश की अर्थव्यवस्था का दोहन और हमारे प्राकृतिक संसाधनों का नाश करना। रासायनिक कृषि के संसाधन जितने महंगे हैं, जैविक उससे चौगुने महंगे हैं। इसका अभिप्राय है कि हमारे किसानों और प्राकृतिक संसाधनों का जितना शोषण रासायनिक कृषि से हो रहा है, उससे चौगुना शोषण जैविक खेती से किया जा रहा है।

क्रमशः

वैज्ञानिकों ने बनाई गजब की कैंडी, स्वाद भरपूर  आयरन की कमी दूर

संजय कुमार,

निदेशक, आईएचबीटी

पालमपुर स्थित हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई कैंडी में ऐसे पोषक तत्वों का समावेश किया गया है, जो बच्चों व महिलाओं में आयरन की कमी दूर करते हैं। यह कैंडी गर्भवती महिलाओं के लिए भी अच्छी मानी जा रही है।  वैज्ञानिकों ने बताया कि प्रकृति में मिलने वाले पौधे का उपयोग कर उन्होंने  कैंडी, आमपापड़ व न्यूट्री बार तैयार किए हैं। आईएचबीटी के निदेशकडा.संजय कुमार बताते हैं कि नियमित रूप से चार कैंडी के उपयोग से बच्चों में आयरन की कमी दूर की जा सकती है।

स्क्रॉल के लिए

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, 6 वर्ष से कम आयु के 58 प्रतिशत बच्चे और 18 से 49 वर्ष की प्रजनन आयु की 53 प्रतिशत महिलाएं आयरन की कमी के कारण एनीमिक हैं। सीएसआईआर-आईएचबीटी ने सूक्ष्म पोषक तत्वों की न्यूनतम 20 प्रतिशत अनुशंसित आहार तत्त्व प्रदान करने वाली आयरन से भरपूर रेडी टू इट तकनीक विकसित की है। यह उत्पाद प्रति 30 ग्राम में 25-30 प्रतिशत आरडीए जैवविविध आयरन प्रदान करते हैं। संस्थान द्वारा उत्तर प्रदेश में लखनऊ के करीब एक गांव के बच्चों को ट्रायल के तौर पर कैंडी व आम पापड़ खाने को दी गई थी जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। आयरन की कमी से जूझ रहे बच्चों में आयरन की मात्रा बढ़ी हुई पाई गई। संस्थान का यह ट्रायल पपरोला स्थित आयुर्वेदिक कालेज के सहयोग से भी चलाया जा रहा है। जिसके परिणामों से जनता में यह संदेश दिया जा सकेगा की संस्थान द्वारा तैयार किए गए यह उत्पाद आयरन की कमी दूर करने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं।

जयदीप रिहान, पालमपुर

20 किलो हल्दी से आठ क्विंटल पैदावार

खेती के शौक ने सेवानिवृत्त खंड प्रारंभिक शिक्षा अधिकारी को खेतों की ओर मोड़ा और पहले ही वर्ष में उन्होंने रिकार्ड तोड़ हल्दी की पैदावार अपने एक बीघा खेत से प्राप्त कर ली। हम जिक्र कर रहे हैं रिटायर्ड बीपीईओ रामानंद ठाकुर का, जो कि नाहन खंड के पंजाहल पंचायत गांव कुडली डगरांह के निवासी हैं। रामानंद ठाकुर ने सेवानिवृत्ति के बाद रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली पेंशन पर ही निर्भर रहना नहीं चाहा तथा खेत के शौकीन रहे अधिकारी को फिर खेती की माटी ने अपनी ओर खींचा। पहले वर्ष में 20 किलोग्राम हल्दी लगा दी, जिसके बाद उसकी फसल आठ क्विंटल पाई, तो आसपास के अन्य किसान और क्षेत्रवासी भी बीज लेने के लिए उनके पास आने लगे। 20 किलो हल्दी का बीज लगाकर आठ क्विंटल हल्दी को पूरी तरह से प्राकृतिक खाद के हिमायती रामानंद ठाकुर ने आर्गेनिक तरीके से पाया है।  वहीं अब इस शानदार सफलता के बाद किसान और रिटायर्ड अधिकारी रामानंद ठाकुर ने अचारी लहसुन को भी 20 किलोग्राम जैविक खाद से तैयार करने लग रहे हैं। उन्होंने बताया कि वह क्षेत्र के लोगों को भी प्राकृतिक खेती की ओर प्रेरित कर रहे हैं।

 रिपोर्ट: सुभाष शर्मा, नाहन

बैन दवाओं से सेब की सेटिंग

हिमाचल का बागबान महंगे रसायनों के नाम पर ठगा जा रहा है। सेब की अच्छी सेटिंग करवाने के नाम पर बागबानों को यह कहा जा रहा है कि ये विदेशों से आयात किया जा रहा है, लेकिन कहां से आ रहा है और वास्तव में इनका प्राइज कितना है किसी को कोई पता नहीं। सूबे में कई दवा विक्रेताओं के अलावा घर बैठे कई नामी बागबान फलों की अच्छी सेटिंग व इसके आकार को लंबोतरा करने के नाम पर रसायनों को बेच रहे हैं और तो और चार हजार करोड़ की आर्थिकी पर टिके इस सेब के भविष्य को लेकर प्रदेश की सरकार भी ऐसे बिचौलियों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही। ये वे रसायन हैं जिस पर केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और अन्य एजेंसियों से इसे बेचने की मंजूरी नहीं है। गत वर्ष भी अधिकतर बागबानों को ब्लैक में बेचकर कुछ दवा विक्रेताओं ने काफी अधिक पैसा कमाया था। यहां तक कुछ बागबान अपने फेसबुक आईडी पर इसका प्रचार-प्रसार करके बागबानों को देने की बात कर रहे हैं। ये रसायन पीजीआर के नाम पर बेचे जा रहे हैं और इसमें जो मात्रा जिबरेलिक एसिड की है, उसे बाहरी देशों में बेन किया हुआ है। पीजीआर मतलब प्लांट ग्रोथ रेगुलेटर, लेकिन इसमें जिबरेलिक एसिड की अधिक मात्रा होने के कारण इसे बेचने पर पाबंदी है। इनमें अब ये कहां से इन व्रिकेताओं तक पहुंच रहा है। इसका कोई पता नहीं है। गत वर्ष भी कुछ बागबानों ने इसे इस्तेमाल किया था, जिसके बाद अच्छी सेटिंग तो हुई, लेकिन बाद में अत्याधिक ड्रॉपिंग होने से बागबानों को काफी नुकसान इसका उठाना पड़ा था। मार्केट में इस समय इसको 20 से 30 हजार रुपए लीटर बेचा जा रहा है। दावा यह किया जाता है कि ये विदेश से लाए जा रहे हैं, लेकिन कहां से आ रहे हैं इसका कोई अता-पता नहीं है। फिलहाल बागबानों ने प्रदेश सरकार से इस गोरखधंधे को रोकने की मांग उठाई है।                

 रिपोट: रोहित सेम्टा, ठियोग

 एनएएम के दम से बचेंगे औषधीय पौधे

अजय परशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

गौरतलब है कि अतीस की खेती समुद्रतल से तीन से 4-5 हजार मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में चंबा, कुल्लू, शिमला, कांगड़ा और मंडी जिला में फरवरी-मार्च में की जा सकती है। एक एकड़ भूमि के लिए 400 ग्राम बीज पर्याप्त होता है। अच्छी फसल होने पर एक एकड़ में 120 किलोग्राम अतीस जड़ें प्राप्त हो सकती हैं, जो चार हजार प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेची जा सकती हैं। खेती की लागत करीब 53-5 हजार है। पांच साल में इससे 4.27 लाख रुपए की आमदन हो सकती है। कुटकी की उत्पत्ति के लिए भी अतीस के समान ऊंचाई दरकार होती है और शिमला, लाहुल-स्पीति, किन्नौर, कुल्लू, चंबा और कांगड़ा में जून माह में पैदा किया जा सकता है। प्रति एकड़ हेतु अधिकतम 30 ग्राम बीज पर्याप्त होता है। पैदावार प्रति एकड़ 375 किलोग्राम हो सकती है, जो एक हजार प्रति किलो के हिसाब से बिकती हैं। खेती की लागत महज 54 हजार है जबकि मुनाफा 3.2 लाख तक हो सकता है।  कुठ के लिए किन्नौर, लाहुल-स्पीति, कुल्लू और कांगड़ा जिला के दो से 3.5 हजार मीटर की ऊंचाई वाले इलाके मुफीद हैं। एक एकड़ के लिए अप्रैल और मई माह में 1,500 ग्राम बीज पर्याप्त हैं। करीब सवा दो साल के बाद एक एकड़ में 1,400 किलो सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं, जो बाजार में 240 रुपए प्रति किलो मूल्य दिलवा सकती हैं। इससे अढ़ाई साल में चार लाख तक की आमदन हो सकती है। सुगंध बाला के लिए चंबा, कांगड़ा, शिमला, कुल्लू, मंडी और सिरमौर के डेढ़ से चार हजार की ऊंचाई वाले क्षेत्र उपयुक्त हैं। एक एकड़ हेतु 350 ग्राम बीज पर्याप्त है। जून माह में रोपित यह फसल तीन साल में तैयार हो जाती है। कुल 24 हजार रुपए प्रति एकड़ लागत वाले इस औषधीय पौधे से 56 हजार रुपए की आय प्राप्त की जा सकती है। अश्वगंधा के लिए ऊना, हमीरपुर, कुल्लू, मंडी, बिलासपुर, सोलन और सिरमौर के 1,400 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र उपयुक्त हैं। एक एकड़ हेतु आठ ग्राम बीज ही काफी है। यह जून-जुलाई में लगाया जाता है। इसकी फसल छह माह में तैयार हो जाती है। इसकी लागत लगभग 12 हजार रुपए प्रति एकड़ है और इतनी ही शुद्ध आय प्राप्त की जा सकती है। सर्पगंधा के लिए कांगड़ा, ऊना, बिलासपुर, सोलन, कांगड़ा और हमीरपुर के 1,800 मीटर से कम ऊंचाई वाले क्षेत्र उपयुक्त हैं। एक एकड़ हेतु 1.25 किलोग्राम बीज पर्याप्त है। यह जुलाई से अक्तूबर माह के दर यानी प्रत्यारोपित किया जाता है। उपज 300 किलोग्राम प्रति एकड़ है। बाजार में इसके प्रति एक किलो हेतु 900 रुपए तक मिल जाते हैं। तीस हजार रुपए प्रति एकड़ की लागत वाली खेती के बदले अढ़ाई साल बाद करीब 2.40 लाख रुपए की आमदन हो सकती है। तुलसी राज्य के कांगड़ा, सोलन, बिलासपुर, ऊना, सिरमौर और मंडी के 900 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पैदा होती है।े प्रति एकड़ 120 ग्राम बीज ही पर्याप्त है। पहली फसल बुआई के बाद अधिकतम 95 दिनों में हासिल हो जाती है। इसे अधिकतम 75 दिनों के अंतराल में काटा जा सकता है। एक एकड़ से पांच क्विंटल सूखा पंचांग प्राप्त हो सकता है। इससे प्रति एकड़ 25 हजार रुपए की शुद्ध आमदन हो सकती है। 

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