बच्चों से उनका बचपन न छीनें : मेरा भविष्‍य मेरे साथ-29 करियर काउंसिलिंग कर्नल रि. मनीष धीमान

By: Mar 18th, 2020 12:32 am

मेरा भविष्‍य मेरे साथ-29

करियर काउंसिलिंग कर्नल रि. मनीष धीमान

मार्च के महीने से उत्तर भारत में गर्मी के आगाज के अलावा, जो दूसरी महत्त्वपूर्ण बात होती है, वह है बच्चों की परीक्षा। हर मां-बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा इन दो महीनों में  मेहनत कर, अच्छे परिणाम के साथ अगली कक्षा में जाए। सेना में भी इन्हीं दो महीनों में ज्यादातर सैनिकों को वार्षिक चिकित्सा जांच करवाना जरूरी होता है। कुछ वर्ष पूर्व इसी तरह की चिकित्सा जांच  के लिए मैं सैनिक अस्पताल पहुंचा। खून जांच के बाद मैं प्रतीक्षालय में बैठा अगली जांच के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहा था कि एक जवान दंपति मेरे पास आए और हाथ जोड़कर मेरे सामने खड़े होकर बोले, साहब हमारी मदद कीजिए। लैब असिस्टेंट ने हमें बताया है कि आपका ब्लड ग्रुप हमारे बच्चे से मिलता है। उसको खून की तत्काल जरूरत है और अस्पताल में उस ग्रुप का खून नहीं है, आप हमारे लिए भगवान का रूप बनकर आए हैं। कृपया करके एक यूनिट खून देकर हमारे बच्चे की जान बचा लें। मैंने यह सुन उनको ढाढस बंधाया और पूरी जानकारी हासिल कर, उनके बच्चे को खूनदान किया। बाद में मसले की जानकारी हासिल करने पर पता चला कि उनका सत्रह साल का लड़का, जो कैंटोनमेंट के केंद्रीय विद्यालय में ही बारहवीं के पेपर दे रहा था और पढ़ने में भी काफी अच्छा था, पेपर ठीक न होने की वजह से इतना ज्यादा दुखी हो गया कि घर की बालकनी से छलांग लगा दी। एक पेपर ठीक न होने मात्र से उस बच्चे ने अपनी जिंदगी समाप्त करने का निर्णय ले लिया। इस घटना ने मुझे अंदर से झकझोर दिया। विषय पर गहन अध्ययन कर कुछ बुद्धिजीवी लोगों, अध्यापकों व अभिभावकों से बात कर मैंने पाया कि आजकल के माता-पिता शिक्षा व्यवस्था को समझने में गलती कर रहे हैं। विदेशों से मात्र अढ़ाई साल के बच्चे को विद्यालय भेजने की प्रथा तो हम भारत में ले आए, पर यह समझ ही नहीं पाए कि विदेशों में सिंगल पेरेंट्स एवं एकल परिवार की प्रथा है, जहां पर बच्चे को घर में देखने वाला कोई न होने की वजह से उसे अढ़ाई वर्ष की उम्र में खेलकूद के लिए विद्यालय में भेज दिया जाता है। वहां उसे खाना-पीना और खेलना ही सिखाया जाता है, पर भारत में ज्यादातर लोग विद्यालय का मतलब सिर्फ किताबी शिक्षा ही समझते हैं। यहां तक कि प्ले स्कूल के नाम से खोले गए संस्थान भी पढ़ाई करवाने लग गए। हमने नर्सरी-केजी और न जाने क्या-क्या नाम देकर दो साल के बच्चे को किताबों में इस तरह से व्यस्त कर दिया कि उसका बचपन छीन लिया। दूसरा, विदेशों में हर कक्षा के पाठ्यक्रम को चित्र और ज्यादा उदाहरणों के साथ समझाने के लिए हर विषय की दो से तीन किताबें होती हैं और उनको वहीं पर स्कूलों में अलमारी या डेस्क में रखते हैं, पर भारत में 8-9 साल के बच्चे 30 से 35 कॉपी और किताबें रोज अपने बैग में डाल भारी बोझ उठाकर स्कूल जाते हैं। यह सब देख मुझे यह लगता है कि जिस उम्र में बच्चों को खेलना-कूदना और अपने शारीरिक विकास के लिए स्वतंत्र सोच की आवश्यकता होती है, उसमें हम बच्चे को सिर्फ  और सिर्फ  किताबी पढ़ाई में झोंक रहे हैं। यही कारण है कि खेलने के लिए भी कोचिंग की आवश्यकता हो रही है। हम बच्चों को इस तरह से परवरिश दे रहे हैं कि वे बिना किसी गाइडेंस के कोई निर्णय खुद ले ही नहीं सकते। उनको यह लगता है कि अगर हमारे किसी एक विषय में नंबर नहीं आए, तो उनका सब कुछ खत्म हो गया। अगर किसी अच्छे इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में सिलेक्शन नहीं हुई, तो जिंदगी समाप्त हो गई। यहां यह बताना जरूरी है कि जिंदगी बहुत बड़ी है। मात्र एक पेपर या परीक्षा से सफलता या असफलता का फैसला नहीं किया जा सकता। मुझे लगता है कि हमारी सरकार, अध्यापकों, अभिभावकों व समाज के बुद्धिजीवियों को शिक्षा के प्रति विकसित हो रही धारणा को बदलने की आवश्यकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किताबी पढ़ाई, शिक्षा और सफलता के लिए बहुत जरूरी है, पर यह भी सच है कि बिना किताबी ज्ञान के भी इनसान शिक्षित और सफल हो सकता है। इसलिए बच्चों पर पढ़ाई का ज्यादा दबाव न बनाकर, बचपन जीने की आजादी देनी चाहिए।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App