संवैधानिक संस्थाओं के अनादर की प्रवृत्ति

By: Mar 4th, 2020 12:05 am

राकेश कपूर

लेखक, धर्मशाला से हैं

एक अनुमान के अनुसार प्रदेश के शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग में ही लगभग 200 से अधिक न्यायिक अवमानना के मामले लंबित हैं। यद्यपि भारतीय संविधान और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति अनादर और असहिष्णुता हर राज्य में विशेष रूप से कार्यपालिका और जनप्रतिनिधियों ‘विधायिका’ की मनमानी और स्वहितस्य सेवा की भावना के चलते पूरे देश में बढ़ती जा रही है मगर हिमाचल जैसे छोटे राज्य जो अपनी संवेदनशील और कर्त्तव्य निष्ठ कार्यपालिका के जनप्रिय व्यवहार के लिए जानी जाती है में गत कुछ वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की अनुपालना में कोताही और आदेशों की अनदेखी कर वर्ग विशेष के लोगों और राजनीतिक रूप से सबल संस्थाओं, व्यक्तियों को अनुचित लाभ पहुंचाने के कुचक्र से प्रदेश के न्याय प्रिय नागरिक और कर्मचारी अपने आप को न सिर्फ  ठगा महसूस कर रहे हैं अपितु न्याय पाने की उनकी चाह भी मरती जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय तक जा कर निर्णय करवा लाने के बाद भी जब गरीब नागरिक और सामान्य कर्मचारी भी उस की अनुपालना उस के हित  में न करवा पाए वे भी मात्र कार्यपालिका के निठल्लेपन और स्वार्थ सिद्धी के कारण, तो उसकी पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है, सरकार द्वारा नकारने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में अवमानना याचिका दाखिल करना अथवा स्पेसिफिक परफार्मेंस प्राप्त करना कितना महंगा और दुष्कर है शायद कुर्सीवादी विचारधारा से ग्रसित कार्यपालिका को अंदाजा नहीं। सबसे ताजा मामला शिक्षा विभाग में गत 18 माह से अटकी प्रधानाचार्यों और मुख्याध्यापकों  की 200 पदोन्नतियां हैं। इस हेतु सरकार द्वारा जारी वरीयता सूची से बाहर किए गए उन सभी पूर्व सैनिकों के नाम, जिन्होंने बिना इमर्जेंसी कमीशन सेना भर्ती के बावजूद पूर्व सैनिकों के लिए आरक्षित पदों पर नियुक्ति प्राप्त करते ही असंवैधानिक तरीके से सेना में सेवा की अवधि एवं पद लाभ प्राप्त कर लिया था। 2017 के सर्वोच्च न्यायालय के  Division Bench of this Court in V.K.Behal and ors. vs. State of H.P. and ors. 2009 LIC 1812 and the judgment rendered by the Hon’ble Supreme Court in R.K.Barwal and ors. vs. State of H.P. and ors. (2017) 16 SCC 803, के आदेश के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय ने V.K.Behal बनाम हिमाचल सरकार एवं अन्य मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय के  विरुद्ध दायर याचिका पर फैसला सुनाते हुए 1993 के  उस फैसले पर अपनी वैधता की मुहर लगा दी जिसने  DEMOBLISED सेवा नियम 5, 1972, प्रशासनिक सेवाओं में सशस्त्र सेना कार्मिकों को जारी किया। इन नियमों को वर्ष 1974 में बनाया गया था और इन्हें ‘Demobilised Armed Forces Personnel ‘हिमाचल प्रदेश प्रशासनिक सेवाओं में रिक्तियों का आरक्षण’ नियम, 1974 को निरस्त करते हुए इनके प्रावधानों को पूरी तरह असंवैधानिक करार दे दिया था। इन्हीं नियमों को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद गत 8 माह से प्रदेश सरकार मुख्याध्यापकों की वरिष्ठता सूची और पदोन्नति फाइनल नहीं कर पा रही। फलस्वरूप प्रदेश के न केवल लगभग 200 वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय बिना प्राचार्यों के लंगड़ा कर चल रहे हैं, बल्कि बड़ी संख्या में स्कूल लेक्चरर और मुख्याध्यापक बिना पदोन्नति के ही सेवानिवृत्त हो गए हैं क्योंकि कुछ पूर्व सैनिकों ने अपनी वरिष्ठता को बरकरार रखने के लिए प्रशासनिक जड़ता को इस कद्र मुट्ठी में कर लिया कि सरकार 8 माह से उच्च न्यायालय को यह बताने में असमर्थ है कि देश के  सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में ही नियम निरस्त कर दिया है। जबकि इसी 2017 के फैसले के आधार पर कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर के अनिल कुमार  के मामले…LPA No.187/2012  Decided on : 25.6.2019… में स्वयं उच्च न्यायालय 2019 में पूर्व सैनिक के रूप  में सेवा लाभ को नकार चुका है। याद रहे कि हिमाचल सरकार ने बड़ी संख्या में सेना में सेवारत जवानों और अधिकारियों के कारण पूर्व सैनिकों को सेना से सेवामुक्ति के बाद पुनर्वास और पुनः रोजगार की गरज से ही नियमों का इस्तेमाल किया। फलस्वरूप बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली बोर्ड, लोकनिर्माण, सामाजिक न्याय अधिकारिता, राजस्व सेवा के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश प्रशासनिक सेवा तथा अलाइड सर्विसेज के माध्यम से उच्च पदों पर पहुंच गए। नियुक्ति के बाद जुगाड़ और राजनीतिक प्रश्रय, प्रशासनिक धोखाधड़ी के खेल के चलते शुरू हुआ। इन नियमों का दुरुपयोग इसी के चलते सेना में खच्चर चलाने वाले, लांगरी और  NON JCO Çþæ§ßÚU NURSING ASST.Áñâð  3rd ,4th samvarg पदों पर भर्ती हुए सैनिक भी न सिर्फ  प्रदेश प्रशासनिक सेवा में दाखिल हो  गए अपितु सेना में इन पदों पर गुजारे 18-20-24 सालों के सेवा को प्रशासनिक सेवा के समकालीन घोषित करवा लिया और आईएएस तक बन गए। राजस्व सेवा में DKC , Naib तहसीलदार से हिमाचल प्रशासनिक सेवा तक पहुंचाने वालों की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है। यह सब कैसे संभव हुआ उस के खुलासे के बाद यह स्पष्ट हो जाएगा कि हिमाचल का प्रशासन और  तंत्र दोनों सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को न सिर्फ  धत्ता बता रहे हैं मगर बेशर्मी से उनकी धज्जियां उड़ाकर खुलेआम पीडि़तों को न्यायिक अवमानना का केस दर्ज करने की चुनौती दे रहे हैं।  प्रशासनिक अमले और बाबूगिरी का ही कमाल कहिए कि 1993 में ङ्क्य क्चश्व॥्नरु मामले में अंतरिम आदेश में यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने न तो कोई स्थगनादेश जारी किया न ही उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त आदेश की विवेचना स्पष्ट है। STATUS QUO OF THE DAYS ORDER BE MAINTAINED यानी 1993 के उस आदेश बाद प्रदेश में पूर्व सैनिकों को सेवा लाभ प्रदान करने के नियम 5 के असंवैधानिक घोषित हो जाने से लेकर 2017 तक क्त्र .्य क्च्नक्त्रङ्ख्न्नरु मामले में आए अंतिम आदेश तक किसी पूर्व सैनिक को ऐसा लाभ नहीं दिया जाना चाहिए था मगर पीडि़तों के आरोप की न्याययिक सेवा पर कैंटीन सेवा भारी पड़ गई और 2020 तक भी खेल जारी है सत्य प्रतीत हो रहा है। 2012 में सर्वोच्च न्यायालय से 2003 में दर्ज एक झूठे मुकदमे में बाइज्जत बरी हुए एक अन्य प्रशासनिक अधिकारी के विरुद्ध उसी स्नढ्ढक्त्र पर जिसमें  उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय बरी कर चुका है विभागीय जांच कार्मिक विभाग की ‘मैं न मानू’ प्रवृत्ति के चलते जारी है जबकि 1999 से 2018 तक सर्वोच्च न्यायालय यह निरंतर व्यवस्था दे चुका है कि आपराधिक मामले में बरी होने पर  IENTICAL CHARGE पर विभागीय जांच नहीं हो सकती। 2016 में सेवा निवृत्ति पाए इस अधिकारी को प्रशासनिक हठधर्मिता के चलते 50.60 लाख के लंबित देय पेंशन लाभ से भी वंचित रखा गया है। इसी तरह के मामलों में गोयल जैसे कुछ WHISTLE ब्लोवर सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्ट आदेशों के बावजूद धक्के खा रहे हैं और भ्रष्टाचारी आरोपित मलाई।


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