हिमाचल के भाषायी सरोकार

By: Mar 22nd, 2020 12:04 am

सुदर्शन वशिष्ठ

मो.-9418085595

विशाल हिमाचल के गठन से आरंभ करें तो हिमाचल में भाषायी सरोकारों और साहित्य का उदय अस्सी के दशक में हुआ। या यूं कहें कि विशाल हिमाचल बनने के बाद यहां भाषायी और साहित्यिक उथल-पुथल इकट्ठा शुरू हुई। यह सही है कि साहित्य यदि शरीर है तो भाषा की आत्मा के बिना प्राणवान नहीं बन सकता। सन् अस्सी के आरंभ में यहां कई तरह के साहित्यकार उपस्थित हुए जिन्होंने नए और समसामयिक साहित्यिक सरोकारों को जन्म दिया (यहां गुलेरी और यशपाल को फिलहाल छोड़ देते हैं)। उस समय एक लेखक वे थे जो केवल हिंदी में लिखते थे। सन् अस्सी के बाद पूरे देश में हिमाचल की हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी। दूसरे वे जो ‘पहाड़ी आंदोलन’ से जुड़े और केवल पहाड़ी में लिखने वाले हुए। तीसरे वे थे जो हिंदी व पहाड़ी, दोनों में लिखते रहे। कुछ ऐसे भी थे जो हिंदी, पहाड़ी, संस्कृत और अंग्रेजी, सभी भाषाओं में लिखने का दावा करते थे। इनमें भी कुछ हिंदी लेखक पहाड़ी के धुर विरोधी थे, जो पहाड़ी का मजाक उड़ाते थे। कुछ लिखते तो हिंदी में थे, मगर पहाड़ी की निंदा नहीं करते थे। ऐसे माहौल में साहित्यिक सरोकार उभरे और साहित्यकारों की बड़ी संख्या सामने आई। 11 जुलाई 1882 को डाडासीबा में जन्मे पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम को पहाड़ी का आदि कवि माना जाता है। मगर यह सच्चाई है कि पहाड़ी एक जरूरत के रूप में तब उभरी जब पंजाब के पुनर्गठन की लटकती तलवार ने पहाड़ी क्षेत्रों में अपनी भाषा की ओर ध्यान दिलाया। हिमाचल के कुछ पर्वतीय भागों को हिमाचल में मिलाने के स्थान पर पंजाब में शामिल किए जाने की मुहिम के समय पहाड़ी भाषा व संस्कृति एक जरूरत के रूप में सामने आई। राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा समय-समय पर तरह-तरह की सिफारिशों के समक्ष पुराने हिमाचल और नए हिमाचल, दोनों के नेताओं ने सूझबूझ दिखा कर आपस में मिलने की योजना बनाई और भाषा और संस्कृति के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात उठाई गई। जनगणना में ‘पहाड़ी’ को अपनी मातृभाषा लिखाने का अभियान चला। इन सारे प्रयासों के बाद प्रथम नवंबर 1966 का ही वह दिन था जब केंद्र ने कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल-स्पीति, ऊना, शिमला, नालागढ़, डलहौजी, बकलोह के पहाड़ी क्षेत्रों को हिमाचल में मिलाकर विशाल हिमाचल का गठन किया। विशाल हिमाचल के उस दौर में अपनी भाषा व संस्कृति के प्रति सरकार जागरूक हुई और यशवंत सिंह परमार तथा लालचंद प्रार्थी जैसे पहाड़ी संस्कृति और भाषा के पोषकों के हाथ में सरकार की कमान आई। भाषा-संस्कृति विभाग बनने से पहले शिक्षा विभाग के अंतर्गत ‘राज्य भाषा संस्थान’, फिर पहाड़ी भाषा के उत्थान के लिए 30 सितंबर 1970 का हिमाचल प्रदेश विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित होने के बाद दो अक्तूबर 1972 को ‘हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी’ का गठन और इसी वर्ष ‘भाषा एवं सांस्कृतिक प्रकरण विभाग’ का गठन इस दिशा में महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं। क्योंकि अकादमी के अध्यक्ष और विभाग के निर्माता श्री लालचंद प्रार्थी पहाड़ी भाषा व संस्कृति के उत्थान के प्रति प्रतिबद्ध थे, अतः उस समय पहाड़ी भाषा का एक आंदोलन-सा खड़ा हो गया। पुराने हिमाचल के लेखक डा. परमार की तरह नाक में बोलने लगे तो नए हिमाचल के प्रार्थी की तरह दाढ़ी न होते हुए भी खुजलाने लगे। प्रार्थी जी उदार थे, ग़ज़लगो थे, अतः उन्होंने पहाड़ी को खूब प्रोत्साहन देते हुए भी उन्होंने हिंदी या उर्दू का विरोध नहीं किया। उस दौर में विभाग तथा अकादमी द्वारा पहाड़ी के उत्थान के लिए जो कार्य किए गए, वे सराहनीय थे। अनेक प्रोत्साहनों ने प्रदेश में पहाड़ी के प्रति एक वातावरण तैयार किया। नित नए लेखक और कवि-लेखक सामने आने लगे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि तत्कालीन सरकार ने अपने को हिंदी राज्य न कह कर ‘पहाड़ी राज्य’ कहा और हिंदी राज्यों में ग्रंथ अकादमियों को मिलने वाला एक करोड़ रुपया ठुकरा दिया। फलतः हिमाचल प्रदेश में अन्य हिंदी राज्यों की तरह ग्रंथ अकादमी नहीं बन पाई। भाजपा सरकार आई तो कहा गया, हम तो हिंदी राज्य हैं, हमें ग्रंथ अकादमी के लिए एक करोड़ दिया जाए। तब तक देर हो चुकी थी। केंद्र ने मना कर दिया। प्रारंभ में जो भाषाएं आठवीं अनुसूची में सुगमता से आ गई, सो आ गई। उसी आदि काल में हर हिंदी भाषी राज्य को केंद्र से ग्रंथ अकादमी की स्थापना के लिए एक करोड़ मिले, सो मिले। बाद में जो चीजें जो बिन मांगे मिलीं, हासिल करना कठिन हो गईं। हमारे यहां, विभिन्न वर्गों और जातियों की तरह भाषाआें का भी यह दुर्भाग्य रहा है कि उनमें कुछ को तो संविधान की अनुसूची में शामिल किया गया, कुछ को नहीं। भाषाओं को भी अलग-अलग क्षेत्रों और जातियों की तरह लिया गया। भाषाओं का भी एक शेड्यूल बना।

जो चीजें यहां शेड्यूल या अनुसूची में मिलीं, वे फायदे में भी रहीं और विवादों में भी रहीं। लेकिन, यह भी हुआ कि शेड्यूल शब्द अपना अर्थ बदल कर एक गाली के रूप में भी प्रयोग में आने लगा। यह एक वर्ग या जाति का सूचक हो गया। भाषा के मामले में आठवें शेड्यूल की भाषाएं तो सवर्ण हो गईं, उन्हें कई प्रोत्साहन मिलने लगे। जो बाहर रह गईं, वे अछूत हो गईं। किसी भी भाषा को बनाना, बिगाड़ना या शेड्यूल में डालना, बहुत हद तक सरकार के हाथ में होता है, अतः यह धारा सदा नहीं बह पाई। सरकार बदली और हिंदी का बोलबाला हो गया। सरकारों के बदलने के साथ रुकने और चलने की स्थिति बनी रही। लेखक भी अपनी भाषा बदलते रहे। प्रार्थी और पराशर के बाद हिमाचल में पहाड़ी को मान्यता दिलाने के लिए कोई कर्णसिंह जैसा नेता नहीं मिला जिन्होंने डोगरी को मान्यता दिलाई। वैसे भी किसी भाषा को मान्यता दिलाना, आठवीं अनुसूची में शामिल करना केंद्र सरकार के अधीन है। केंद्र सरकार चाहे तो किसी भी अनजान भाषा को मान्यता दिला दे। ऐसा उदाहरण नेपाली का है। कुछ साल पहले केंद्र ने प्रस्ताव पारित किया और सभी राज्यों ने अपने विशेष सत्र बुलाकर प्रस्ताव पारित कर दिए। यद्यपि पहाड़ी का प्रमुख स्वर कविता रहा, तथापि इसने ठेठ पहाड़ी मुहावरे को पकड़ कर जन-जन तक पहुंचने में कामयाबी हासिल की। कई तरह के छंदों से होकर ग़ज़ल जैसी विधा को भी साधा गया। उधर हिंदी लेखकों ने दिल्ली के द्वार खटखटाए। समाज में साहित्यिक सरोकार तो बराबर रहते ही हैं। जब कोई अकादमी नहीं थी, विभाग नहीं था, तब भी संस्कृत के बाद टांकरी लिपि और ब्रजभाषा में लिखा जाता रहा है। ऐसे सरोकारों के लिए सरकार की बैसाखी की जरूरत नहीं होती।

 


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