हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है

By: Mar 22nd, 2020 12:04 am

डा. राजन तनवर

मो.-9418978683

हिमाचल प्रदेश हिम के आंचल में बसा पहाड़ी प्रदेश है। इस प्रदेश के दो जिलों किन्नौर और लाहौल-स्पीति में चीनी-तिब्बती भाषा परिवार की तथा अन्य जिलों में भारोपीय भाषा परिवार की बोलियां बोली जाती हैं। सभी जिलों की भौगोलिकता के अनुरूप यहां की बोलियां और उपबोलियां हैं जिन सभी में लोक साहित्य का सृजन किसी न किसी रूप में किया जाता रहा है। किंतु मूल रूप से यह हिंदी भाषी राज्य है जिसकी राज्य भाषा, राजभाषा तथा राष्ट्र भाषा हिंदी ही है। यहां की समस्त बोलियों एवं हिंदी भाषा में पर्याप्त साहित्य सृजन किया जा रहा है, किंतु क्या कारण है कि यहां के साहित्यकार की लेखनी की ताकत क्षीण होती जा रही है? वह पाठकों को अपनी लेखनी की ताकत से बांध नहीं पा रहा है। इस तकनीकी युग में पाठ्य सामग्री के पाठन के प्रति पाठकों का  रुझान कम होता जा रहा है तो ऐसे में हिमाचली साहित्यकार का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है। भारतीय मानचित्र पर जिस प्रदेश को शांत प्रदेश की संज्ञा दी जाती है, वह प्रदेश आज भ्रष्टाचार व बलात्कार के दंश को झेल रहा है। छात्रवृत्ति घोटाला, गुडि़या जैसे कांड में प्रदेश पुलिस की संदिग्ध संलिप्तता, पाठशालाओं, सामाजिक उत्सवों एवं धार्मिक स्थलों पर जातीय आधार पर भेदभाव करना स्वतंत्रता के बहत्तर वर्ष पूर्ण होने के उपरांत भी ज्यों का त्यों विद्यमान है। क्या कारण है कि हिमाचल प्रदेश का साहित्यकार अपने मूल कर्त्तव्य से विमुख होता जा रहा है। यद्यपि कुछ साहित्यकार प्रयास भी कर रहे हैं जो कि पर्याप्त नहीं हैं। साहित्य समाज के लिए आइने का दायित्व निभाता है, किंतु हिमाचली साहित्यकार इस दायित्व को पूर्ण नहीं कर पा रहा है। साहित्य तो पराधीन राष्ट्रों को स्वतंत्र करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। किंतु आज हिमाचली साहित्यकार अपनी लेखनी से इस शांतिप्रिय कहे जाने वाले प्रदेश से भ्रष्टाचार, बलात्कार तथा जातीय भेदभाव जैसी समस्याओं को मिटाने में असमर्थ है। साहित्यकार सही मायनों में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। आज हिमाचली साहित्य को राष्ट्रीय फलक पर लाने के लिए हिमाचली साहित्यकार को अपनी कुंठित मानसिकता से ऊपर उठने की आवश्यकता है। उसे बुराई को बुरे रूप में ही देखना होगा। भाई-भतीजावाद, राजनीतिक लाभ-हानि के तराजू पर साहित्य को नहीं तोलना होगा। जिन राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों को आज भी सम्मान से याद किया जाता है, उन्होंने सदा साहित्य धर्म निभाया व कुंठित मानसिकता को अपने समीप नहीं पनपने नहीं दिया। इसके बावजूद जब तक अधिकतर हिमाचली साहित्यकार निष्पक्षता से साहित्य सृजन नहीं करेंगे, तब तक उन पर साहित्य को सिकोड़ने के आरोप लगते रहेंगे। इन सब बातों के आधार पर यह कहना पड़ रहा है कि हिमाचल का साहित्यकार साहित्य के मूल उद्देश्य से विमुख हो रहा है तथा साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है।

 


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