एक दीया कोरोना के खिलाफ

By: Apr 7th, 2020 12:05 am

दीया सिर्फ  संज्ञा नहीं है। वह प्रतीक भी है। मौजूदा संदर्भ में वह राष्ट्रीय प्रतीक बनकर सामने आया है और निराशा, नकार के अंधकार में उजाला दिखाई दिया है। उजाला मानवीय आशाओं और उल्लासों का प्रतीक है। उजाला मन और देह में ऊर्जा भर देता है। प्रकाश और दीया भारत की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और शास्त्रों के महत्त्वपूर्ण अध्याय रहे हैं। बीते रविवार को समूचे देश ने दीपक जलाया, बल्कि दीपावली की तरह दीयों की कतारें भी सजाईं। किसी ने भारत का नक्शा बनाकर उसके भीतर दीये जलाए और एक प्रतीक की अभिव्यक्ति की। किसी ने दैवीय ॐ बनाकर दीये प्रज्वलित किए। यह ढकोसला नहीं था। सभी अभिव्यक्तियां ढकोसला नहीं हुआ करतीं। यह किसी विचारधारा या संप्रदाय अथवा राजनीतिक सोच का समर्थन भी नहीं था। दरअसल कोरोना महामारी ने मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति-जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा-को जागृत कर दिया है। दीये जलाकर उसी प्रवृत्ति को आलोकित किया गया। इस राष्ट्रीय अभियान ने सह-अस्तित्व की हमारी प्राचीन सोच को भी एक अवसर दिया। बेशक कोरोना ने हमें बहुत अकेला किया है। हम घर में ही कैद हैं। जीवन में गति, स्पंदन नहीं हैं, बल्कि अनिश्चितताओं के जंगल हैं। अवसाद, बेचैनी और नींद नहीं आने की मनःस्थितियां भी हैं। नतीजतन इस दौर में भारत में मानसिक बीमारियों में करीब 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोरोना से प्रभावित विभिन्न आयु-वर्गों का जो डाटा जारी किया है, उसके मुताबिक 20 से 60 वर्ष की आयु के करीब 74 फीसदी लोग ज्यादा प्रभावित हुए हैं। आश्चर्य है कि अधेड़ और बुजुर्ग, 60 साल से ऊपर की उम्र वाले, औसतन 17 फीसदी हैं, जबकि माना जाता रहा है कि 60-65 की उम्र से ज्यादा वाले ही कोरोना की चपेट में जल्द आते हैं और उनकी मृत्यु-दर भी ज्यादा है। अपेक्षाकृत युवा आयु वालों का कोरोना संक्रमित होना या प्रभावित होना चौंका देने वाला तथ्य है। जाहिर है कि इस आयु-वर्ग में भी हमारी औसत रोग-प्रतिरोधक क्षमता कमजोर है। लिहाजा ऐसे दौर में दीया और उजाला नई मुस्कान, नई उम्मीद, नई ताकत और जीने की नई उमंग दे सकता है, कमोबेश इस मनोवैज्ञानिक आधार को खारिज नहीं किया जा सकता। हम उस देश के नागरिक हैं, जिसने खाद्यान्न संकट के दौर में एक वक्त का खाना भी छोड़ा था। हम जब स्वतंत्र देश बने, तब हमारी क्षमता तो सूई बनाने तक की नहीं थी, लेकिन आज हम अंतरिक्ष की महाशक्तियों में गिने जाते हैं। मौजूदा परिस्थितियां किसी युद्ध-काल से कम नहीं हैं। कोरोना से संक्रमित या बीमार लोगों का आंकड़ा बढ़ते हुए 4000 को पार कर गया है। मौतें भी 110 से अधिक हो चुकी हैं, लेकिन सुखद यह है कि करीब 300 मरीज ठीक होकर घरों को भी लौटे हैं। अब यदि देश बचेगा, हम नागरिक जिंदा रहेंगे, तो अर्थव्यवस्था को भी बुलंदियों पर पहुंचाया जा सकता है। भारतीयों ने यह करामात की है, जो आज हम विश्व की छठी अर्थव्यवस्था हैं। बेशक दीया जलाने से कोरोना वायरस नहीं मरा, न ही इस महामारी के इलाज का कोई रास्ता प्रशस्त हुआ, लेकिन देशव्यापी उजाले बिखरे हुए देखे, अंधेरों को चीर कर रोशन दुनिया दिखाई दी,चेहरों पर खुशियां नाचती दिखीं, लोगों ने शंखनाद भी किए, तो लगातार एहसास होता रहा कि भारत अभी पराजित नहीं हुआ है, भारत ने हारना सीखा नहीं है, वह लंबी लड़ाई को भी तैयार है, लेकिन अंततः उसे विजयश्री ही चाहिए। एक बौने से प्रयास से यह राष्ट्रीय एहसास होना क्या कम है? बेशक हम विराट लोकतंत्र हैं, तो कुछ चेहरे और आवाजें ऐसी भी दिखीं-सुनी गई होंगी, जिन्होंने दीये के क्षुद्र अस्तित्व पर ही सवाल किए हैं। उनकी नकारात्मकता उन्हें मुबारक…आज इस पर व्याख्या नहीं करेंगे, लेकिन प्रतीकों की दुनिया भी स्वीकार करना सीखो। बेशक आह्वान देश के प्रधानमंत्री मोदी ने किया था। उन्होंने छह अप्रैल को भाजपा के 40वें स्थापना दिवस पर अपने कार्यकर्ताओं को भी पंचाग्रह की शपथ दिलाई है। इस संकटकाल में देश का नेतृत्व मोर्चा नहीं लेगा, तो फिर कौन लेगा? यह संक्रमण काल मुट्ठी की तरह भिंचे रहने का है, एकजुटता का है, बिखर जाओगे, तो अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है। यह सह-अस्तित्व का कालखंड है, लिहाजा चारों ओर ऐसी तस्वीरें दिखाई देंगी कि औसत इनसान अपने गरीब,जरूरतमंद नागरिक को खाना खिला रहा है, उसे राशन मुहैया करवा रहा है, उसे अस्पताल तक भी लेकर जा रहा है। भुखमरी हमारे देश में दस्तक तक नहीं दे सकती, बेशक हमारे संसाधन सीमित हैं। लिहाजा आप सभी से गुजारिश है कि कोरोना के खिलाफ  एक दीया हररोज जलाएं। एक सुबह ऐसी आएगी, जब आपको खबर मिलेगी कि कोरोना वायरस का अस्तित्व खत्म हो रहा है।


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