चिंतनशील हो गया है साहित्यकार

By: Apr 5th, 2020 12:02 am

डा. गंगाराम राजी

मो.-9418001224

कोरोना के कारण आज मनुष्य घर की चारदिवारी के अंदर बंद है, वह टीवी के माध्यम से बाहर के जगत का अंदाजा लगा रहा है और भयावह दृश्य देख डर का संचार उसके मन में होने तो लगा है, परंतु मनुष्य ने कभी इसके कारणों पर विचार नहीं किया है। यह सब उसी की करनी के फल हैं जो उसे ही मिल रहे हैं, ठीक इसी कहावत की तरह कि ‘जो बोओगे वही तो काटोगे।’ आज लेखक ही नहीं, समाज का हर प्राणी चिंतित हो गया है, किसी को चिंता है रोजी-रोटी की, तो किसी को चिंता है जीवन बचाने की, किसी को चिंता है इस त्रासदी से अपने को उबारने की, और किसी की चिंता बन गई है अपने देश और अपने आदमियों को बचाने की अर्थात सब चिंतक बन गए हैं। यहां लेखक अधिक चिंतनशील हो गया है, अपने साहित्य के प्रति नहीं, इस भयानक स्थिति से निपटने के लिए उसकी जड़ तक जाने को। सबसे बड़ी बात, राजनीतिज्ञ भी चिंतक हो गया है, उसकी सोच में बदलाव आने लगा है, वह अब हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई नहीं देख रहा है, वह अब सबमें मानव की झलक देख रहा है, और मानव को बचाने के लिए प्रयासरत है। शायद यह सोच है कि जब कोई भी नहीं बचेगा तो वह राज किस पर करेगा? कुछ भी हो, वह भी चिंतातुर है। आज कोरोना की यह त्रासदी चीन से छोड़ा गया एक ऐसा हथियार है जो मनुष्य को घर बैठे ही मार रहा है। मैं तो इसे विश्व का तीसरा युद्ध समझ रहा हूं। एक इतिहासकार ने तो यहां तक कह दिया कि ‘अगर चौथा विश्वयुद्ध होता है तो वह आदि मानव की तरह लाठी और डंडे से लड़ा जाएगा।’ और इसकी शुरुआत हो चुकी है। संसार की बड़ी शक्तियां अपने शक्ति परीक्षण की होड़ में मानव जाति को ही खत्म करने की प्रतिस्पर्धा में हैं, परंतु वे सत्ता के इस अहंकार में भूल जाती हैं कि अगर मानव ही नहीं रहेगा तो राज किस पर करेंगी? बर्नाड शॉ ने कहा था ,‘गलतफहमियों में डूबे रहना, गलतियां करने से भी खतरनाक है।’ जहां चीन अपने रंगमहल में बैठ कर हंस रहा है, क्या यह उसके जैविक हथियारों का एक प्रयोग तो नहीं? अगर ऐसा हुआ तो इस युग में मनु भी नहीं बचेगा। जिस प्रकार से बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, अपनी ही जाति का नाश करने लगती है, मानव अब तू भी उसी स्थिति में आ पहुंचा है। जयशंकर प्रसाद ने पिछली शताब्दी के चौथे दशक में कामायनी के चिंता सर्ग में यह चिंता दर्शायी थी –

‘आह सर्ग के अग्रदूत! तुम/असफल हुए, विलीन हुए,

भक्षक का रक्षक, जो समझो,/ केवल अपने मीन हुए।’

यही नहीं, स्वयं चीन को भी इस युद्ध में हजारों लोगों की बलि देनी पड़ी। वह तो ऐसा देश है जो कुत्ते, बिल्ली, चमगादड़, मेंढक, सांप आदि से लेकर काकरोच तक को नहीं छोड़ता। कहते हैं कि जैसा देश वैसा भेष तो है, परंतु इनसान यह भी भूल जाता है और आज प्रमाणित भी हो गया है कि जैसा खाओगे अन्न वैसा ही बनेगा मन। राक्षसों की योनी में भी तो ऐसा होता आया है जो अपना ही प्रभुत्व चाहते हैं, लेकिन मरते भी रहे हैं अपने ही चक्रव्यूह में फंस कर जैसे शक्ति मिलने पर भस्मासुर की दुर्गति हुई थी। चीन एक ऐसा देश है जो अपनी प्रगति के लिए आदमी के जीवन को तुच्छ मानता आया है। उसने अपने पत्ते तब खोले जब स्थिति उसके नियंत्रण से बाहर होने लगी। तब उसने जगजाहिर किया। वह तो तब सक्रिय हुआ जब उसने देखा कि स्थिति उसके नियत्रंण से बाहर जाने लगी है, वह सतर्क हो गया। और तो और, विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक डा. तेद्रौस अधानोम ने भी इस बात को हल्के में लिया और तीन महीने बाद इस वायरस पर चिंता जताई। अगर सब पहले सतर्क हो जाते तो स्थिति कुछ और ही होती। आदिकाल से आज तक हर त्रासदी गरीबों को ही झेलनी पड़ी है। आदमी की सबसे बड़ी आवश्यकता भूख मिटाने की है। आज टीवी पर देख रहे हैं कि आदमी रहन-सहन की परवाह न करते हुए पेट भरने की सोचने लगा है। हमारे देश में तीस करोड़ लोग हैं जो सुबह उठ कर काम पर जाते हैं, जो कुछ उन्हें मिलता है, उससे पेट भरते हैं, परंतु इस कोरोना ने जब उनसे रोजी-रोटी का साधन ही छीन लिया तो वे कोरोना की परवाह न करते हुए पेट भरने का साधन ढूंढने में लगे हैं। वह सोचता है कि कोरोना से तो महीने-दो महीने बाद मरना है, यहां तो उसका शरीर चार घंटे में ही कुछ खाने को मांगता है। हर त्रासदी मनुष्य को कुछ न कुछ सिखा जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान को अमरीका ने बम गिराकर जब मिट्टी में मिला दिया था, उस देश ने तब भी हिम्मत नहीं हारी और उसने अपने को जल्दी ही संभाल लिया। आज विश्व को इस कोरोना से उबरने की सबसे पहली आवश्यकता है और अभी इसका एकमात्र तरीका है अपने को सामाजिक कारोबार से दूर रखना। अगर ऐसा करोगे तो हम इस मानव संस्कृति को बचा पाएंगे अन्यथा नहीं। पहले इससे उबर लें, सरकार के आदेशों की पालना मन से की जाए, हम होंगे कामयाब एक दिन …. शेष मनमुटाव फिर सही …।


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