जिंदगी, जिंदगी जैसी हो, इससे ज्यादा कोई सपना हमने नहीं देखा

By: Apr 5th, 2020 12:05 am

मुरारी शर्मा

मो.-9418025190

कर्फ्यू के भीतर साहित्यिक जिंदगी-1

मन के ताले खोले बैठे साहित्य जगत के सृजन को कर्फ्यू कतई मंजूर नहीं। मुखातिब विमर्श की नई सतह पर और विराम हुई जिंदगी के बीचों-बीच साहित्य कर्मी की उर्वरता का कमाल है कि कर्फ्यू भी सृजन के नैन-नक्श में एक आकृति बन जाता है। ऐसे दौर को हिमाचल के साहित्यकारों, लेखकों और पत्रकारों ने कैसे महसूस किया, कुछ नए को कहने की कोशिश में हम ला रहे हैं यह नई शृांखला और पेश है इसकी पहली किस्त…

फलीस्तीनी कवि महमूद दरवेश की कविता की कुछ पंक्तियों से अपनी बात शुरू करना चाहूंगा ः हमने जिंदगी निबाहने का ऐसा किसी तरीके का स्वप्न नहीं देखा, जिंदगी जिंदगी जैसी हो और मरा जा सके अपने तरीके से, इससे ज्यादा कोई सपना हमने नहीं देखा…। वर्तमान हालात भी कुछ ऐसे ही हैं। कर्फ्यू के भीतर साहित्यिक जिंदगी वैसी ही है जैसे आम आदमी महसूस करता है, वैसे भी साहित्य जीवन और समाज से अलग थोड़े है। कर्फ्यू…एक कठोर प्रतिबंध है, आपकी स्वतंत्रता पर। जीवन की रवनगी पर रोक…जिंदगी में ठहराव का दूसरा नाम है कर्फ्यू। हर तरफ  सन्नाटा…सड़कें सुनसान, बाजार वीरान। एक उदासी सी…और मौत का डर…बादशाह का फरमान है घर से बाहर न निकलो। निकलो तो अकेले, किसी से हाथ न मिलाओ और गले मिलना तो मौत को गले लगाना है। ऐसे में जनाब बशीर बद्र का शेर ज़हन में कौंध उठता है ः

यूं ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो, वो ़गज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो, कोई हाथ न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।

कोरोना ने भी हालात कुछ ऐसे ही बना दिए हैं। कर्फ्यू में भी जिंदगी का अलग मजा है। जनता कर्फ्यू के दिन हालात कुछ और थे, शहर में सन्नाटा सा पसरा हुआ था। इतवार के दिन लोग अपनी मर्जी से घर से बाहर नहीं निकले। बाजार बंद, व्यापार बंद, बसें बंद, लोगों की आवाजाही बंद। सब कुछ बंद…पर बसंत का उल्लास कम  नहीं था…कलियों का चटखना, भंवरों की गुनगुन, कोयल की कूहक और चिडि़यों के चहचहाने पर तो रोक नहीं है। शहर के चौराहे पर खड़ा होकर देखता हूं…क्या मेरा ही शहर है जो कभी रुकता नहीं, कभी थमता नहीं और कभी थकता नहीं…। मगर उस दिन शहर खामोश था। शहर में सन्नाटा था, सड़क पर न गाड़ी थी, न सीटी बजाती पुलिस, न भीड़, न भिखारी…। सब कुछ वीरान, सुनसान जंगल की तरह…यह शहर भी तो कभी जंगल ही था। दरिया के उस पार ही थी लोगों की बस्ती…यहां तो थी बस दूर-दूर खामोशी जैसी आज थी। इस खामोशी को चिडि़यों की चहचहाट तोड़ने का प्रयास कर रही थी…जो किसी संगीत से कम जादू भरा अहसास नहीं था। मेरा मानना है कि कर्फ्यू तो कर्फ्यू है, इसमें बे-सबब तो फिरा नहीं जाएगा। इसलिए जनता कर्फ्यू के बाद ही अपनी ज़हनी खुराक का सामान इकट्ठा कर लिया। शहर के बुक सेलर की दुकान से हंस, पाखी, कादंबिनी और युगवार्ता पत्रिकाएं खरीद लाया। अपने शहर के वरिष्ठ कवि दीनू कश्यप जिन्होंने हमें साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ने की आदत डाली है…जनता कर्फ्यू के दौरान श्मशनघाट पर कामरेड देशराज शर्मा के पिता की अंत्येष्टी के अवसर पर बातों ही बातों में पूछ बैठे, तूने किरण सिंह की पहल-111 में छपी कहानी राजजात यात्रा की भेड़ें पढ़ी कि नहीं। मेरे न कहने पर बोले, मेरे पास है पढ़ने केलिए दूंगा, फिर वापस लौटा देना और पहल का नया अंक आया है, खरीद लेना। बस… दूसरे ही दिन उनके घर जा पहुंचा और दोनों पत्रिकाएं बगल में दबाकर घर आ गया। बड़ी मुद्दतों के बाद एकांतवास का अवसर मिला है…पठन-पाठन का सिलसिला नए सिरे से शुरू किया जाए। सबसे पहले हंस मार्च 2020 अंक में अंग्रेजी से अनुदित कहानी सुलताना का सपना पढ़ी। जो 1880 में पैराबंद बंगाल में जन्मी लेखिका रूकैया हुसैन सखावत की लिखी हुई है। हारिस कादिर द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनुदित इस कहानी का अनोखा रचना संसार है। यह एक ऐसे देश की कहानी है जिसमें औरतों का शासन है और मर्द जनाने में पर्दे के पीछे रहकर चूल्हा-चौका संभालते हैं। इस देश के तीन विश्वविद्यालय अजब-गजब शोध करते रहते हैं। ये शोध भी महिलाओं द्वारा ही किए जाते हैं। एक विश्वविद्यालय आसमान में गुब्बारे फिट कर पानी जमीन पर खेंच लाता है, जिससे यहां कभी बारिश और बाढ़ नहीं आती है। मगर पानी की भी कोई कमी नहीं रहती। दूसरा विश्वविद्यालय सूरज की गर्मी को पाइप में डालकर उसे घर-घर तक पहुंचा देता है, जिससे न केवल रसोई का इर्ंधन चलता है, प्रकाश व्यवस्था का भी इंतजाम होता है। यही नहीं, पड़ोसी मुल्क द्वारा हमला किए जाने की स्थिति में महिलाओं ने पुरुषों को पीछे हटाकर सूरज की इसी गर्मी से दुश्मन की फौज को भगा दिया और उनके हथियार पिघला दिए।

पहल-111 में छपी किरण सिंह की कहानी राजजात यात्रा की भेड़ें कुमाऊं गढ़वाल की नंदादेवी की राजजात यात्रा से जुड़ी बेजोड़ कहानी है। इसमें यात्रा के बीच से भागे चौसिंगा भेड़ की तलाश के साथ-साथ किरण सिंह पहाड़ से पलायन करते लोगों और पीछे छूट गए असहाय लोगों की दास्तां का बखूबी चित्रण करती है। इस कहानी को पढ़ने की  प्रेरणा देने के लिए अपने वरिष्ठ कवि दीनू जी का विशेष आभार। इसके अलावा मैंने कुछ अन्य साहित्य भी पढ़ा। इसी बीच सोशल मीडिया पर भी सक्रियता बराबर बनी हुई है। जमावड़ा ग्रुप की बहसों पर बराबर नजर है। जहां कवि मित्र अजेय, गणेश गणी, विजय विशाल और निरंजन देव आदि सक्रिय हैं। भाई लोग कविता, कहानी, उपन्यास और रिपोर्टिंग के मसले पर उलझे हुए हैं। जबकि पत्रकार मित्रों के ग्रुप कर्फ्यू के दौरान पुलिस की दबंगता के विरोध में लामबंद हो रहे हैं। सोशल मीडिया में कोरोना को लेकर उपदेशों, इलाज-उपचार, और भी कई तरह की पोस्टों की भरमार है। जिंदगी में पहली बार इतने लंबे लॉकडाउन और कर्फ्यू की वजह से अपने आपसे चिंतन-मनन करने, स्वाध्याय करने का अवसर मिला है। कोशिश रहेगी इस समय का जितना हो सके सदुपयोग करने की कोशिश करूंगा। सबकी खैर चाहते हुए विश्व के कोरोना के संकट से जल्द बाहर निकलने की कामना करता हूं।

 


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