पंजाब पहुंच गई धौलाधार

By: Apr 7th, 2020 12:05 am

लॉकडाउन एक ऐसी परिस्थिति में मानव फितरत को निहार रहा है कि जहां अतीत से भविष्य तक के मजमून कुछ सवालिया हो जाते हैं। जालंधर से धौलाधार की खींची गई तस्वीर में शहर को देखें या पंजाब से आकाशीय नजारे में पर्वत को कबूल करें। जो भी हो अगर सौ किलोमीटर दूरी को कैमरा पकड़ रहा है, तो पर्यावरण ने अपने लिए कितने फिल्टर बना लिए होंगे। दो हफ्तों की परिवहन मनाही के सदके वातावरण की स्वच्छता अगर एक उज्ज्वल तस्वीर की पुरोधा बन गई, तो उस कसूर को भी परखें जिसकी परतें हमने यूं ही ओढ़ रखी हैं। दिल्ली की याद में पराली जलाने के वृत्तांत और प्रदूषण की कलिष्टता में महरूम होतीं वायु शुद्धता के खिलाफ होती परिस्थितियां अगर इस विराम में बदल गई, तो मानवता के खिलाफ हमारे विकास और जीवन शैली के चिट्ठे भी खुल रहे हैं। यमुना में कभी अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप के आगमन पर पानी छोड़ना पड़ा था ताकि आगरा की परछाई में नदी का पानी बदबूदार असर न छोड़ दे। कोरोना से लड़ाई का एक असर पर्यावरण पर यकीनन पड़ा है और इस हिसाब से बर्फ से लकदक धौलाधार के प्रांगण में जालंधर खड़ा हो जाता है। कहीं तो मानवीय विसंगतियों की गणना शुरू हुई है। लॉकडाउन के बीच मानव को एक प्रजाति  की  तरह देखें, तो दिमागी तहों का फितूर उतर जाएगा, वरना तबलीगी जमात के कोहराम में कोरोना के सामने इनसान की फितरत का मुलम्मा उतरेगा। देश इन आंकड़ों  को कैसे झुठलाए कि तबलीगी जमात ने कोरोना मामलों का तीस फीसदी ही नहीं ओढ़ा, बल्कि अंधविश्वास के आत्मघाती कदमों पर चलते हुए मरकज का मतलब ही बदल दिया। कांगड़ा के उस मौलवी को धर्म से जानें या उसकी शैतानरूह से पूछें कि वह मानवता के घोर अंधेरों में छिप कर क्या उंडेल रहा था। कांगड़ा के फतेहपुर उपमंडल का मौलवी फेसबुक पर सरेआम धार्मिक वैमनस्य बांट रहा था, तो कानून-व्यवस्था के लिए यह खतरनाक पैगाम है। धर्म स्थलों के मुखिया अगर कट्टरता पहन लेंगे, तो हिमाचल जैसे शांतिप्रिय प्रदेश को आंखें खोलनी पड़ेंगी और सवाल फिर पिछले तीन दशकों की गतिविधियों से पूछे जाएंगे। बहरहाल कोरोना की दहशत में सिरफिरे मौलवी को कौन समझाए कि मानवता किसी एक धर्म की पोशाक नहीं, बल्कि सामाजिक सौहार्द की बुनियाद में धार्मिक सहिष्णुता  के ठोस धरातल की परख है। दिल्ली की जमात ने कोरोना ही नहीं फैलाया , बल्कि अब संकट में धार्मिक जहर भी सामने आने लगा है। एक और जमाती कांगड़ा से पॉजिटिव निकल आया तो मौलवी को कौन समझाए कि विज्ञान अपने यथार्थ और प्रयोग पर चलता है न कि धार्मिक विडंबनाओं के सहारे आज तक कभी प्रलय ने मुंह मोड़ा है। बहरहाल लॉकडाउन की खासियत में लोगों ने थाली बजाने के बाद एक दीया जलाया, तो कई प्रश्न उठेंगे और उठ भी चुके हैं। क्योंकि राष्ट्रीय निमंत्रण था, इसलिए देश का हर नागरिक दीया जला कर प्रधानमंत्री के हाथ में मशाल थमा रहा था। यह मशाल केवल कुछ समय तक बाती का जलना या अंधेरों में प्रकाश करने का इवेंट कतई नहीं हो सकता, बल्कि कोरोना के खिलाफ राष्ट्रीय जरूरतों के फलक पर हमें खुद को बटोरना है। सूचनाएं अपने ही यथार्थ की गिरफ्त में शिकायत बन जाएं, तो अंजाम से पहले सुधार की गुंजाइश देखनी होगी। कल जले दीयों का प्रकाश हर अस्पताल तक पहुंचना चाहिए ताकि डाक्टरों का सेवा भाव उत्साहित रहे, लेकिन इसके साथ-साथ चिकित्सा के आवश्यक उपकरणों की खरीद का रास्ता भी दिखाई दे। लॉकडाउन ने पर्यावरण के उखड़े चमन को फिर से बसा दिया, तो क्यों न आइंदा हर साल सारा विश्व कम से कम दस दिनों तक इसी तरह के इंतजामों में कुछ परिवेश को सहेजने की ऐसी रस्में भी स्थापित करे, जो  सभी धार्मिक अनुष्ठानों से ऊपर और मानव भविष्य के लिए सर्वोत्तम साबित हो सकती हैं।  इसी तरह लॉकडाउन  ने सुशासन को मजबूत और पुलिस को सौहार्दपूर्ण बनाया है। अब देखना यह होगा कि कोरोना लॉकडाउन के चलते सबसे ऊपर रही स्वास्थ्य सेवाओं को किस तरह सर्वश्रेष्ठ बनाया जाता है।


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