पुरस्कार रुष्ट साहित्यकारों को

By: Apr 10th, 2020 12:04 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

हर वर्ष साहित्य अकादमी के पुरस्कार घोषित होने के बाद पुरस्कार पाने में विफल साहित्यकारों में कुछेक महीनों के लिए अथवा स्थायी रूप से रुष्टता का भाव पनप जाता है और वे अकादमी की रीति-नीति तथा गतिविधियों में नुकताचीनी करके अपनी भड़ास निकालते देखे जा सकते हैं। कुछ ऐसे भी साहित्यकार होते हैं, जो किताब के अभाव में साहित्य सम्मान पुरस्कार लेते हैं। इसके लिए उत्कृष्ट कृति की आवश्यकता नहीं होती, इसके लिए केवल सिफारिश चाहिए अथवा विरोध करने की प्रबल शक्ति। इन दोनों के आधार पर साहित्य सम्मान प्राप्त किया जा सकता है। इन्हें मैं दुष्ट साहित्यकार मानता हूं। क्योंकि यह पुरस्कार विशुद्ध रूप से व्यक्ति की दुष्टता पर निर्भर करता है, लेकिन सामयिक परिस्थितियों में यदि रुष्ट साहित्यकार सम्मान अथवा रुष्ट साहित्यकार पुरस्कार और प्रारंभ कर दिए जाएं तो तुष्टिकरण के सिद्धांतों के पालन के साथ-साथ अकादमी को भली-प्रकार से चलाया भी जा सकेगा। साथ ही इससे अनेक साहित्यकार हर वर्ष पुरस्कार से फारिग भी हो जाएंगे। इसलिए साहित्यकारों के बढ़ते असंतोष तथा रुष्टता को ध्यान में रखते हुए यह पुरस्कार प्रारंभ कर दिया जाना चाहिए, ताकि साहित्य में सदाचार बना रहे। रुष्ट साहित्य का पुरस्कार साहित्यकार की नाराजगी की ऊंचाई पर निर्भर होना चाहिए जो साहित्यकार घोषित पुरस्कारों से जितना अधिक नाराज और असहमत हो, उसे ही वरीयता से चयनित करना चाहिए। सच कहता हूं कि इससे साहित्यकारों की बाढ़ आ जाएगी। क्योंकि इसमें करना कुछ नहीं पड़ेगा। न तो कृति का चक्कर और न कृति के स्तर का चक्कर। चक्कर है तो केवल नाराजगी का, जिसके लिए हमारा मुकाबला नहीं है। हमारी यह नियति रही है कि न तो हम नियमित लिख सकते हैं और न कोई पुस्तक प्रकाशित करा पाते हैं, बस किसी को पुरस्कार मिल जाए तो परेशान और नाराज जरूर हो सकते हैं। उस आदमी की मेहनत और कृति में वर्णित सच्चाई को नहीं देखते और करने लगते हैं कि यह तिकड़म में मिला है, यह सब राजनीति ‘एप्रोच’ का कारण है। रुष्ट साहित्यकार एक खोजो हजार मिलते हैं। जिससे बात करो, वही नाराज बैठा है। उसकी शिकायत होती है कि गधे-घोड़े का फर्क नहीं रहा है। हमने पिछले बीस-तीस वर्ष में क्या घास खोदी? जो हर ऐरा-गैरा नत्थू मार ले जा रहा है अकादमी के पुरस्कार। अकादमी के पुरस्कारों की पंजीरी फांकने का मन सतत रूप से रुष्ट साहित्यकारों में बना रहता है। वे यह भी कहते हैं कि हमसे बढि़या तो वे दुष्ट हैं जो केवल अड़ंगेबाजी भिड़ाकर अकादमी से दुशाला मार लेते हैं और नकद धनराशि अलग।                                       


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