बंद में खिलते प्रकृति उपक्रम

By: Apr 1st, 2020 12:05 am

विकेश कुमार बडोला

लेखक, उत्तराखंड से हैं

चीन की यह आशंका बलवत है कि यदि उसी की तरह अन्य देशों ने भी कोरोना जैसे जैविक शस्त्र निर्मित कर लिए तो वैश्विक साम्राज्यवाद का उसका स्वप्न ध्वस्त हो जाएगा। पिछले चार-पांच महीनों में चौबीस-पच्चीस हजार लोग कोरोना से अपने जीवन गंवा चुके हैं। यह अनुभव जीवित बचे लोगों को केवल स्वयं की जान बचाने के लिए प्रेरित कर रहा है। मरे हुए लोगों और उनके परिजनों के लिए संवेदनाएं कहीं भी किसी के पास नहीं बचीं…

कल रात्रि के प्रथम प्रहर में वर्षा हुई। तृतीय प्रहर तक रात समुज्ज्वल हो चुकी थी। चांदी रंग के सितारे नीले आसमान पर असीमित आकर्षण से चमक रहे थे। आजकल चंद्रमा नहीं है। सुबह उठकर देखा, पूर्व दिशा की पहाड़ी पर सूर्य की झिलमिलाहट से चारों ओर चैत्र का उजाला पसरा हुआ था। पृथ्वी और आकाश अपनी-अपनी प्राकृतिक व्यवस्थाओं के साथ अनुपम चमक छितरा रहे थे। आकाश, सूर्य अपने सर्वश्रेष्ठ ओज के साथ चमक रहे थे। पृथ्वी, वन-वनस्पतियां, मृदा-जलवायु सब कुछ अपने-अपने हिस्से की सबसे अच्छी आभा बिखेर रहे थे। पहाड़ी की तलहटी वाला मेरे रहने का नगर आधुनिक अराजक लोगों की सार्वजनिक असभ्यता से मुक्त प्राकृतिक कलरव से सुसज्जित था।

बाइस मार्च के बाद चिडि़यों की चहल, चहचह, चिचियाहट और चंचलता ही सार्वजनिक जीवन पर आधिपत्य जमाए हुए है। सचमुच जीवन का महान पक्ष उभर कर आंखों के सम्मुख लहरा रहा है। मेरे लिए जीवन आजकल अत्यंत आह्लादकारी बना हुआ है। दस-पंद्रह दिन पहले तक जिस एकांत, शांत, विश्रांत और प्रशांत समय को मैं केवल अपनी या अपने जैसे गिने-चुने लोगों की पकड़ में बंधा समझता था, आज वही समय दुनिया के अरबों लोगों की पकड़ में चाहे-अनचाहे बंधा हुआ है। आजकल सुबह, मध्याह्न, दोपहर, संध्या, रात्रि, समय के सभी प्रहर नीरवता का सौंदर्य बिखेर रहे हैं। 28 मार्च का दिन प्रकृति का चमत्कारी स्वरूप था।

प्रकृति का कण-कण खिला-धुला हुआ था। दिवस का प्रहर प्रति प्रहर प्राकृतिक सौंदर्य-माधुर्य से विस्मित करता रहा। मेरे घर के द्वारों-खिड़कियों से सुदूर दिखते पर्वतों पर स्थित वृक्ष, पठार, मिट्टी, वहां बसे गांव सब कुछ सुंदरता से पुलकित थे। पश्चिमी दिशा से चलने वाली तेज हवा वर्षा से धुली हरियाली को नृत्य करवा रही थी। वृक्षों, गेहूं के पौधों, आम के पत्तों, सरसों के पुष्पों और अन्य वनस्पतियों को हवा तीव्रतापूर्वक झुला रही थी। परिवेश का ऐसा रूप-रंग देख और इसे एकात्म हो अनुभूत कर कुछ समय के लिए मैं कोरोनाग्रस्त व घरों में बंद विश्व से अलग हो गया। प्रकृति के चलचित्र देख आंखों के रस्ते जो कुछ मन में उतरा, सचमुच वह पारलौकिक अमूल्य उपलब्धि है। यह उपलब्धि प्रकृति के आज के स्वरूप को आत्मसात कर ही प्राप्त की जा सकती है।

संध्या समय सूर्य ढल रहा था। नभ दिनभर अपने नीले रंग की प्रगाढ़ता, सघनता, आकर्षण और मोहिनी शक्ति बढ़ाता रहा। संध्या बेला में तो नभ पटल इतना रूपवान हो उठा कि लगा जैसे यह मेरे संवेदनशील हृदय को मेरे शरीर से बाहर निकाल आनंदनृत्य करने को बाध्य कर देगा। इस समय पश्चिमी नभ का क्षितिज अप्रतिम नील और पीत रंग के संयोजन से अत्यंताद्भुत हो उठा। चैत्र में कृष्णपक्ष की यह प्राकृतिक गति किसी भी संवेदनशील मनुष्य को अपने सौंदर्य से मूर्छित कर सकती थी। दिन ढलने के बाद चांद की आधी फांक ध्रुव तारे के साथ पश्चिमोत्तर व्योम के कुछ ऊपर प्रकट हो गई।

धु्रव तारा इतना निकट प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी आंखों की पकड़ में आ जाएगा। यह कैंडल वाली पतंग की तरह डगमग-डगमग करता लग रहा था। नभ पर अर्द्धचंद्र, ध्रुव तारा, असंख्य अन्य सितारे तो पृथ्वी के अंधेरे में गेहूं के पौधों के बीच टिमटिम करते एक-दो जुगनू रात्रि के प्रथम प्रहर को दिवस से अधिक आकर्षक बना रहे थे। ऐसी रात्रि, ऐसी प्रशांति आधुनिक दुनिया में कल्पना की तरह थी। प्रकृति की इस स्थिति से ध्यान हटता ही नहीं था। मन ये सब छोड़ घर के अंदर जाने को सहमत नहीं था। विवशतापूर्वक कुछ समय के लिए घर के अंदर रहा। वापस बाहर आकर देखा तो रात्रि के दूसरे प्रहर में आधा चंद्र व ध्रुव सितारा पश्चिमी दिशा के क्षितिज में विलीन होने के लिए अग्रसर थे। जैसे-जैसे रात्रि के ये दो रत्न क्षितिज में प्रवेश करते गए वैसे-वैसे उनका रंग-रूप गंभीर होता गया।

अंत में अर्द्धचंद्र व ध्रुव तारा अग्नि जैसे रंग के साथ क्षितिज में विलीन हो गए। उनके लिए व्याकुल हृदय आत्मा बन गया। आंखें नभ के शेष हिस्से पर टिकाईं तो असंख्य सितारे अपनी रजत प्रभा के साथ टिमटिमा रहे थे। लगा जैसे वे भी अर्द्धचंद्र और ध्रुव तारे की विदाई में सहमे हुए हैं। पश्चिमी दिशा में क्षितिज के उस ओर जहां रात्रि के दोनों रत्न विलीन हुए, मैंने दो हाथ जोड़ प्रणाम किया और घर के अंदर चला आया। प्रकृति के उक्त अनुभव जिन परिस्थितियों में हो रहे हैं, यहां उनका वर्णन भी अति आवश्यक है।

कोरोना विषाणु जगत के सिर पर प्राकृतिक प्रकोप के रूप में मंडरा रहा है या इसे चीन द्वारा कृत्रिम रूप में निर्मित कर षड्यंत्रपूर्वक अपने अनेक शत्रु राष्ट्रों पर फैलाया जा रहा है, अब पीडि़त देशों और लोगों का ध्यान इस ओर अधिक है। कोरोना महामारी से निर्जन हुए मेरे रहने के नगर में जो एकमात्र ध्वनि प्रदूषण शेष है वो मस्जिदों के लाउड स्पीकरों का शोर है। कोरोना की वैश्विक महामारी में भी भारत के नेता तुष्टीकरण से बाज नहीं आ रहे, लाउड स्पीकरों को बंद नहीं करा पा रहे।

प्रशांत वातावरण में यह एकमात्र ध्वनि प्रदूषण है, जो क्रोधाग्नि बढ़ाता है। अन्यथा सब कुछ पूर्णतः प्राकृतिक हो चला है। ऐसे में इंटरनेट और मोबाइल फोन भी बंद हो जाएं तो जीवन संपूर्ण हो उठेगा। आरंभ में इंटरनेट व मोबाइल संचारबंध से कुछ समस्याएं अवश्य होंगी, परंतु आत्मचेतना प्राप्त करने पर मनुष्य को संचार सुविधाओं का अभाव, अभाव नहीं लगेगा। आपाधापी, भागमभाग, गलाकाट प्रतियोगिताएं-प्रतिस्पर्द्धाएं, विलासिता की वस्तुएं एकत्र करने की होड़ और करियर के नाम पर विदेश जा बसने की आधुनिक इच्छाएं, सब तिरोहित हो चुकी हैं। जहां देखो वहां अब आत्मरक्षा ही हरेक मनुष्य का मूलमंत्र बचा हुआ है। प्रलय साक्षात है। देख नहीं पाने या देखकर भी अनदेखा करने का भ्रम लोगों को अधिक दिन तक जिंदा नहीं रख सकता।

प्रलय की घटनाएं, परिस्थितियां गंभीरता से देखनी होंगी। उन्हें प्रलय रूप में स्वीकार करना होगा। तब ही आगे के मानवीय जीवन के लिए एक संतुलित जिंदगी की रूपरेखा बन सकती है। आश्चर्य तो ये सोचकर होता है कि प्रलंयकारी घटनाओं को भी दुनिया के ज्यादातर आदमी मजाक और फूहड़ता से देख, सुन और भोग रहे हैं। ऐसे अराजक, असंवेदनशील और अमानवीय लोगों को तो कोरोना निगल ही ले तो अच्छा हो। ऐसों की किसी भी रूप में इस पृथ्वी पर जरूरत ही क्या है! चीन के शासक भी इस वक्त आत्ममंथन में हैं कि उन्होंने जो कोरोना नामक जैविक रसायन बनाया है, वो लोगों के ध्वनिहीन विनाश के लिए तो ठीक है, परंतु उस पर मनचाहे नियंत्रण की तकनीक स्वयं उनके पास भी उपलब्ध नहीं हो सकती।

चीन की यह आशंका बलवत है कि यदि उसी की तरह अन्य देशों ने भी कोरोना जैसे जैविक शस्त्र निर्मित कर लिए तो वैश्विक साम्राज्यवाद का उसका स्वप्न ध्वस्त हो जाएगा। पिछले चार-पांच महीनों में चौबीस-पच्चीस हजार लोग कोरोना से अपने जीवन गंवा चुके हैं। यह अनुभव जीवित बचे लोगों को केवल स्वयं की जान बचाने के लिए प्रेरित कर रहा है। मरे हुए लोगों और उनके परिजनों के लिए संवेदनाएं कहीं भी किसी के पास नहीं बचीं। कोरोना से मरे लोगों के मृत शरीर घृणा के शरीर बने हुए हैं। निकटतम परिजनों के अतिरिक्त ऐसे शवों को कोई अन्य व्यक्ति हाथ भी नहीं लगा पा रहा। किन्हीं परिस्थितियों में तो मृतकों के परिजनों को भी दूर से ही अंत्येष्टि कर्म दिखाए जा रहे हैं। मृतात्माओं के अंतिम दर्शन भी दुर्लभ हो गए हैं।

कोरोना से बचने के क्रम में चिकित्सकीय परामर्श के बाद व्यक्ति-व्यक्ति के बीच बनी सामाजिक-शारीरिक दूरी अनिच्छापूर्वक एक आत्मिक दूरी में भी बदलती जा रही है। मानव जीवन को इतना असहाय देख संवेदनशील लोग जीने-मरने के बीच के भाव में पाषाण बन चुके हैं। जिसे देखो, वो अपनी जान बचाने और जीवन के प्रति भ्रमलीन होने में लगा हुआ है। विज्ञान की पराजय स्पष्ट दिखाई दे रही है और विश्व के सभी लोगों में पुनः ईश्वरीय विश्वास गंभीरतापूर्वक बढ़ने लगा है।


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