अफवाहों की ओर पाठक का भटकना चिंताजनक

By: May 17th, 2020 12:04 am

दौलत भारती

मो.-9418561327

अपने जीवनकाल में कर्फ्यू का पहला वाकया 1984 में देखा था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। हालांकि तब मैं छात्र जीवन के दौर में था, लेकिन दैनिक समाचार पत्र वीरप्रताप के साथ भी जुड़ा हुआ था। उस दौर में पूरा का पूरा अखबार शीर्षक को छोड़ कर सेंसर की भेंट चढ़ रहा था। देश में अशांति का माहौल बन गया था। स्कूल, कालेज, संस्थान सब बंद थे। चारों ओर सन्नाटा था, लेकिन सड़कों पर गश्त, फ्लैग मार्च करती सेना थी। चारों ओर अजीब खामोशी थी। पहली बार जाना था कि आखिर क्या होता है कर्फ्यू। उस समय केवल एक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा था, नफरतों के बीज प्रस्फुटित हो रहे थे। धीरे-धीरे सब सामान्य होता गया। उस दौर में न तो इतनी भागमभाग थी और न ही सन्नाटे को चीरती चीं-पौं। साढे़ तीन दशकों के इस अंतराल में बहुत कुछ बदल गया। इन दिनों महापंडित राहुल सांकृत्यायन का यात्रा वृत्तांत ‘किन्नर देश’ को एक बार फिर पढ़ने का मन किया तोे जाना कि आज और तब में कितना फर्क था। तब सड़कें नहीं थीं, जीवन विकट था, साधन नहीं थे, संसाधनों की कमी थी। बदलाव प्रकृति का नियम है। अब जिंदगी की रफ्तार बढ़ गई। भागमभाग बढ़ गई। पहाड़ों को चीर कर सड़कें ऊंचे शिखरों तक पहुंच गई हैं। सरपट दौड़ते वाहनों की चीं-पौं ने वातावरण को बदल कर रखा दिया है।

तकनीकों के विकास, सूचना प्रौद्योगिकी के इस परिवेश में और विकास की इस गति में मानव मशीन बन गया है। कहीं रोजी की जुगत तो कहीं अपनी आर्थिकी सुधारने की होड़ लगी हुई है। सही मायने में जीवन की इस आपाधापी में मानव प्रवृत्ति भी बदल सी गई है। हमारी मानसिकता को मौजूदा दौर में मीडिया के मौजूदा स्वरूप ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। सोशल मीडिया की बढ़ती पैठ हमारी एकात्मक, सांस्कृतिक विरासत को भी हाशिए की ओर धकेलती नजर आ रही है। साहित्यकार पर उसके देशकाल, परिवेश का गहरा असर दिखाई देता है। अलग-अलग दौर में साहित्य ने भी अहम भूमिका निभाई है। बुजुर्गों से पूर्व में घटित महामारियों की कई गाथाएं सुनी थीं, लेकिन इन दिनों कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को हिला कर रखा दिया है। लॉकडाउन के रूप में कर्फ्यू से जिंदगी ठहर सी गई है। इस दौर में जहां लोगों को मुसीबतों के झंझावात से जूझना पड़ रहा है, वहीं पर्यावरण के लिहाज से सकारात्मक पहलू भी सामने आ रहे हैं। जालंधर सरीखे शहरों से आज के दौर में हिमालय के हिमशिखरों का दीदार स्वाभाविक तौर पर उस शहर में रहने वाले शब्द शिल्पी, साहित्यकार के भीतर कैसे मनोभावों को झंकृत कर रहा होगा, इसे भी भली प्रकार समझा जा सकता है। पीढि़यों के फासलों के बीच इस कर्फ्यू के दौरान सुखद पलों का एहसास साहित्य के रूप में भी कहीं न कहीं प्रस्फुटित होना अवश्यंभावी है। भूख और लॉकडाउन के बीच कर्फ्यू के इस दौर में जहां किसानियत भी अपने पुश्तैनी ढर्रे पर लौटती दिख रही है, वहीं भविष्य के लिए आम जनमानस को भी इस दौर ने एक भयावह चेतावनी दे आगाह करवाया है। मसलन इस दौर में अनुभव और सीख कुछ नया रचने की प्रेरणा दे रही है। बेशक मौजूदा कर्फ्यू का दौर महामारी का दौर है। इंसानी जिंदगी को बचाने का दौर है, लेकिन इस दौर में भी मजहबी तकरार टकराव की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। सोशल मीडिया में भले ही हम सक्रिय हों, लेकिन मौजूदा दौर का पाठक हकीकत की अपेक्षा अफवाहों से ज्यादा प्रभावित होता दिख रहा है। ऐसे में हमारी भावी पीढ़ी किस दिशा में बढ़ रही है, यह यक्ष प्रश्न भी सामने आ खड़ा होता है। सोशल मीडिया बेशक एक अच्छा माध्यम है, लेकिन इसे सकारात्मकता की ओर कैसे ले जाएं, यह भी बड़ी चुनौती है। आपसी भाईचारा बढ़ाना, तकरार-टकराव से मुक्ति, युवा ऊर्जा को सही राह ले जाना और उसका सही उपयोग समय की आवश्यकता है। कर्फ्यू का यह दौर कई सवालों को मन-मस्तिष्क पर उद्वेलित कर रहा है। पीढि़यों के बीच के इस फासले को समझना कर्फ्यू के दौर की बड़ी सीख साबित हो सकता है।


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