साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक

By: May 31st, 2020 12:06 am

डा. गंगाराम राजी, मो.- 9418001224

साहित्य समस्त कलाओं की अपेक्षा समाज के साथ जिन कारणों से जुड़ा है, उसमें भाषा मुख्य है और भाषा एक जैव-सामाजिक सत्ता है। यही वह साधन है जिससे समाज के समस्त व्यवहार, साहित्य में प्रकट होते हैं। इसलिए ही तो साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है और आलोचना समाज के इस दर्पण के परीक्षण करने का एक माध्यम है। सामाजिक अवधारणा के लैंस से आलोचक साहित्यिक कृति का मूल्यांकन करता है। आज के युग में हर पढ़े-लिखे मनुष्य के पास उसके अपने हाथ में मीडिया आ पहुंचा है। अपने मुंह मियां मिट्ठू कहने में उसका अपना ही हाथ रहता है। फिर चाहे वह उसका कितना ही प्रचार, प्रसार कर ले। आज लेखक अपने बंद कमरे में बैठ कर सारे अनुभव नेट से उकेर कर कलमबद्ध करने में लगा है। प्रेम चंद ने होरी के जीवन का भोग व संघर्ष करते एक जीवन का दौर पार किया, तब गोदान सामने आया। मनीषियों ने, पाठकों ने जब उसका अवलोकन किया तो पुस्तक का महत्त्व सामने आया। वास्तव में पाठक ही सबसे पहले किसी भी कृति का आलोचक होता है जो उस कृति का मूल्यांकन कर सकता है, सहृदयतापूर्वक कृति के गुण-दोषों का विवेचन कर सकता है, परंतु लेखक के मार्गदर्शन का काम पाठक नहीं कर सकता। आलोचक का लेखक, कृति और समाज के प्रति उत्तरदायित्व बनता है। रचनाकार के लिए उसका मूल्यांकन एक ओर प्रेरक तो दूसरी ओर मार्गदर्शक का काम करता है।

लेखक से अधिक उत्तरदायित्व आलोचक के मूल्यांकन का होता है। समाज के लिए कृति विशेष क्या उपयोगिता देती है, पाठकों को कृति के प्रति जागरूक कराना, समाज के लिए उसकी उपयोगिता का स्थान निश्चित करना और उसी पायदान पर पाठकों में प्रेरणा जागृत करना और लेखकों के प्रति सम्मान भावना बढ़ाने का दायित्व आलोचक का बन जाता है। यहां मैं यह स्पष्ट कह देना चाहता हूं कि अवलोकन और मूल्यांकन दोनों ही अलग-अलग पहलू हैं। निष्पक्ष दृष्टि से रचना के महत्त्वपूर्ण और अर्थपूर्ण पक्ष की अपनी तर्कपूर्ण शैली से अनुशासित करते हुए उसे पाठक के सामने और लेखक के सामने एक मार्गदर्शक का कार्य करे, यही आलोचक से वांछित रहता है। अगर आलोचक पूर्वग्रहित है तो वह आलोचना अर्थपूर्ण ही नहीं हो सकती। लेखक के पक्ष और प्रतिपक्ष पर अर्थपूर्ण बात करना एक अच्छे आलोचक का काम है। हिमाचल के साहित्य में आलोचना की बात कहें तो यहां पर प्रमुख नामों के साथ छुट-पुट आलोचना का क्षेत्र लगभग सभी ही अपनाने लगे हैं। इनमें सुशील कुमार फुल्ल, निरंजन देव शर्मा, हेम राज कौशिक, कुमार कृष्ण, ओमप्रकाश सारस्वत, अनिल राकेशी, आशु फुल्ल, श्रीराम शर्मा, विद्यानिधि, सुदर्शन वशिष्ठ, कुंवर दिनेश सिंह, विजय विशाल, गणेश गनी, बद्री सिंह भाटिया, तुलसी रमण, इंद्र सिंह ठाकुर व पवन चौहान आदि शामिल हैं।

इनमें बहुत से आलोचक राष्ट्रीय मंच पर अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आलोचक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो। लेखक अपनी और अपनी कृति की बड़ाई के लिए आलोचक से पूर्व अपनी सांठ-गांठ कर ले तो वह क्रिकेट मैच की फिक्सिंग जैसा प्रतीत होता है। यह साहित्य के लिए खतरे की घंटी जैसा ही है। मैंने अक्सर यह देखा है जब कोई आलोचक किसी लेखक का पक्ष लें तो वह खुश, अगर कुछ अवगुण कह दिए तो आलोचक की ऐसी की तैसी। यह तो वही हुआ ‘प्रभु मेरे अवगुण चित

न धरओ’ के आधार पर लेखक आज चलने लगे हैं। आलोचक जब आलोचना के क्षेत्र में पहुंचता है तो उसे अपना रुख भी स्पष्ट करना चाहिए। सहृदयता के साथ द्वेष, ईर्ष्या आदि से रहित गुणों के साथ विषय का विस्तृत ज्ञान, निष्पक्षता और प्रतिभा, निर्णय लेने की क्षमता आलोचक में होनी चाहिए। क्योंकि आलोचक वह तार्किक, बौद्धिक समझ देता है जिसके माध्यम से पाठक, विचारक कृति के मूल्य तक पहुंचता है। अंत में यह कहूंगा कि एक अच्छा आलोचक सहृदयता से कृतियों की स्पष्ट आलोचना कर लेखक या कवि के मार्ग को प्रशस्त करे और रचनाकार के साथ न्याय कर उसके लेखकीय मार्ग को प्रशस्त करे। आलोचना केवल आलोचना के मंतव्य से नहीं होनी चाहिए, बल्कि कृति में सुधार के लक्ष्य के साथ तर्कसंगत आलोचना होनी चाहिए। लेखक को यह नहीं लगना चाहिए कि उसकी आलोचना का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। यह आलोचना कृतिकार के गले भी उतर जानी चाहिए।


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